नालंदा विहार ने कैसे सांस्कृतिक रूप से विश्व को प्रभावित किया है ? UPSC

नालंदा विहार ने कैसे सांस्कृतिक रूप से विश्व को प्रभावित किया है ? UPSC

  • Post category:History
  • Reading time:1 mins read

इस लेख में आप पढ़ेंगे: नालंदा विहार ने कैसे सांस्कृतिक रूप से विश्व को प्रभावित किया है ? UPSC

मौर्य काल के दौरान नालंदा विहार एक ऐसी योजना के तहत बनाया गया था जहां छात्र रह सकें और अपनी पढ़ाई कर सकें। शायद यूरोप के कई कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के कैंपस की संरचनाओं की प्रेरणा इसी से ली गई हो। इनमें ऑक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालय के चौकोर परिसर भी शामिल हैं। नालंदा विहार की स्थापना के बाद इसका एक महाविहार के रूप में विकास एक व्यवस्थित योजना के साथ हुआ था। इसमें कई मठों, एक विकसित बुनियादी ढांचे, एक चारदीवारी वाले आवासीय परिसर, कई चौकोर विहार और साथ ही अंतरराष्ट्रीय छात्रों को ध्यान में रखकर हुआ। यहाँ धर्मनिरपेक्ष विषयों सहित अनेक प्रकार के विषयों को पढ़ाने और इसके लिए उस वक्त के बेहतरीन शिक्षकों की व्यवस्था की गई थी। यह इस बात का उदाहरण है कि कैसे कई सदियों में विश्वविद्यालय का विचार अपने सही अर्थों में विकसित हुआ और मध्य एशिया, यूरोप और बाकी दुनिया में फैला था।

भारतीय गणित के पितामह कहे जाने वाले आर्यभट्ट, छठीं शताब्दी में नालंदा महाविहार में सबसे प्रमुख गणितज्ञ थे, जिन्होंने शून्य को एक अंक के रूप में मान्यता दी. इस क्रांतिकारी अवधारणा ने गणनाओं को सरल बनाया और ऐसी अवधारणाओं को जन्म दिया जो आगे चलकर बीजगणित (अल्ज़ेब्रा) और कैल्कुलस के रूप में जानी गईं। आगे चलकर ब्रह्मगुप्त ने आर्यभट्ट के काम को आगे बढ़ाया जिन्होंने ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धांत’ लिखा था और आठवीं शताब्दी में इसका अरबी में अनुवाद ‘सिंदहिंद‘ के रूप में प्रसिद्ध हुआ था। इस प्रकार भारतीय संख्याओं, बीजगणित, कैलकुलस, एलगॉरिद्म और भारतीय खगोलशास्त्र से यूरोप का परिचय कराया गया था।

गणित और खगोलशास्त्र के क्षेत्र में नालंदा का प्रभाव ख़ासकर चीन में बहुत अहम था। 665 से 698 ईस्वी के बीच गौतम सिद्धार्थ ब्यूरो ऑफ़ एस्ट्रोनॉमी ऑफ़ चाइना के प्रमुख थे, जिन्होंने उस समय भारतीयों की श्रेष्ठता का नेतृत्व किया था। नालंदा में विकसित हुआ तांत्रिक बुद्धिज़्म, सातवीं और आठवीं सदी में चीन में एक बड़ी ताक़त बन कर उभरा था चूंकि अधिकांश तांत्रिक विद्वानों की गणित में गहरी दिलचस्पी थी, इसलिए तांत्रिक गणितज्ञों का चीनी गणितज्ञों पर भी गहरा प्रभाव था। चीन के तांत्रिक बौद्ध भिक्षु आई-सिंग (672 से 717 ईस्वी), अपने समय के महान चीनी खगोलशास्त्री और गणितज्ञ हुए थे, जिन्होंने नालंदा में विकसित गणित और खगोलशास्त्र पर भारतीय कार्यो पर विशेषज्ञता हासिल कर ली थी।

दो बड़े महायान बौद्ध दर्शनों, माध्यमिक और योगाचार के विकास में नालंदा का बड़ा योगदान था। महाविहार में सदियों तक योगाचार के साथ लगातार जुड़ाव ने एक विशेष शाखा को जन्म दिया जिसे वज्रयान या तंत्रयान के नाम से जाना जाता है, जो योगाचार दर्शन के सिद्धातों पर आधारित है। नालंदा में संतरक्षित ने माध्यमिक और योगाचार को मिलाकर एक नया दर्शन विकसित किया था, जिसे योगाचार-माध्यमिक के नाम से जाना गया था। नालंदा में विकसित दर्शनों को दक्षिण, मध्य एशिया, पुर्व एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में फैलाने और इन देशों के लोगों के सांस्कृतिक और धार्मिक स्वरूप को आकार देने में नालंदा महाविहार ने अहम भूमिका निभाई थी।

पांचवीं शताब्दी तक नालंदा कला का भी एक प्रमुख केंद्र बन चुका था। नालंदा में बनाई गई कलाकृतियों में स्थानीय विशेषताओं के साथ -साथ मथुरा और सारनाथ दोनों की विशेषताएं थीं, जो आठवीं शताब्दी में पाल काल के दौरान एक अलग शाखा, नालंदा स्कूल ऑफ़ आर्ट के रूप में विकसित हुई थी। इसका पूर्वी और दक्षिण पूर्वी देशों की कला पर गहरा प्रभाव था। वज्रयान दर्शन के एक हिस्से के तौर पर, तांत्रिक बौद्ध सिद्धांतों के साथ त्रि-आयामी मंडल बनाने का विचार नालंदा महाविहार में विकसित हुआ। इस विधि का प्रयोग बिहार में केसरिया बौद्ध स्तूपों और जावा के बौद्ध स्मारक बोरोबुदुर के निर्माण में किया गया था।

नालंदा महाविहार में सूत्रों को लिखने और उन्हें विभिन्न भाषाओं में अनुवाद करने की महान परंपरा ने सदियों के दौरान कई देशों की भाषा, साहित्य और संस्कृति को समृद्ध किया। तिब्बत की संस्कृति और भाषा इस परंपरा का जीता जागता प्रमाण है। तिब्बती विद्वान थोन्मी सम्भोटा ने नालंदा महाविहार में पढ़ाई की थी, उन्होंने देवनागरी और कश्मीरी लिपियों के आधार पर तिब्बती भाषा के लिए लिपियां तैयार की थीं। नालंदा महाविहार के चौरासी सिद्धों ने, 8वीं से 13वीं शताब्दी के बीच, जैन संतों के साथ मिलकर अपभ्रंश कविता के विकास में अहम भूमिका निभाई थी। पांडुलिपि लेखन, रेखाचित्र, संरक्षण और नकल लेखन की कला को विकसित करने में नालंदा ने केंद्रीय भूमिका निभाई। दुनिया की पहली प्रकाशित पुस्तक ‘द डायमंड सूत्र’ है जो ‘प्रज्ञापारमिता सूत्र’ का एक हिस्सा है।

नालंदा में चिकित्सा विज्ञान ने पूर्वी एशिया, ख़ासकर चीन की चिकित्सकीय परंपरा को गहरे तौर पर प्रभावित किया, जिसमें नालंदा में इस्तेमाल किया जाने वाला अत्याधुनिक नेत्र विज्ञान भी शामिल है, जो तांग चीन (तांग सम्राज्य के दौर में चीन) तक पहुंचा। नागार्जुन की रचना ‘रसरत्नाकर’ को भारतीय रसायन विद्या पर पहला ग्रंथ माना जाता है। चिकित्सा, नेत्र विज्ञान, रसायन विज्ञान और स्वास्थ्य से जुड़े अन्य विज्ञानों में नालंदा की उत्कृष्टता और सर्वोत्तम परंपराओं को तिब्बत, नेपाल, चीन, कोरिया, जापान, मंगोलिया और दुनिया के कई हिस्सों में अपनाया गया था ।

हठ योग का शुरुआती विवरण वज्रयान शाखा के बौद्ध तांत्रिक ग्रंथों में पाया गया है, जिसे नालंदा महाविहार में आठवीं सदी के बाद विकसित किया गया था। सदियों से हठ योग के विकास ने ही योग का लोकतांत्रिकरण किया है। ईसा मसीह के जीवन और सिद्धांत और जातक कथाओं में बुद्ध के बोधिसत्व के रूप में जन्म लेने और दूसरों के लिए अपने जीवन का बलिदान करने में बहुत समानता है। हो सकता है बौद्ध धर्म ने ईसाई धर्म के शुरुआती विकास को प्रभावित किया हो।

कुल मिलाकर नालंदा की सांस्कृतिक परम्पराए देश और दुनिया में आज भी अपनी प्रांसगिकता को बनाए हुए है।