इस लेख में आप पढ़ेंगे: न्यायालय की अवमानना किसे माना जाता है? UPSC / Contempt of Court
भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के विरुद्ध कथित अपमानजनक टिप्पणियों से उत्पन्न हालिया विवाद ने न केवल लोगों को चौंकाया है, बल्कि इसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय के प्राधिकार को कम करने वाला कृत्य भी माना जा सकता है। मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाई जा रही ऐसी टिप्पणियों को न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप के रूप में भी देखा जा सकता है, जिससे संवैधानिक नैतिकता की नींव को सीधे तौर पर नुकसान पहुँचता है। अवमानना कार्यवाही शुरू करने की मांग का यही आधार रहा है।
अवमानना का अर्थ / Contempt of Court
‘न्यायालय की अवमानना’ शब्द का प्रयोग अनुच्छेद 19(2) में मौलिक स्वतंत्रताओं पर उचित प्रतिबंध (reasonable restrictions) लगाने के आधारों में से एक के रूप में किया गया है। फिर भी संविधान ऐसी कार्यवाही कैसे शुरू की जाए, इस बारे में कोई दिशानिर्देश नहीं देता। भारत में, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को क्रमशः अनुच्छेद 129 और 215 के अंतर्गत अभिलेख न्यायालय (courts of record) के रूप में नामित किया गया है। अभिलेख न्यायालय वह होता है जिसके निर्णय भविष्य के संदर्भों के लिए सुरक्षित रखे जाते हैं और स्वाभाविक रूप से उसे अपनी अवमानना के लिए दंड देने का अधिकार भी होता है। इस अंतर्निहित संवैधानिक प्रावधान की व्याख्या न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 (Contempt of Court Act, 1971) में की गई है।
यह अधिनियम अवमानना को सिविल और आपराधिक में वर्गीकृत करता है:
- सिविल अवमानना: किसी निर्णय, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट या अदालत की अन्य प्रक्रिया की जानबूझकर अवज्ञा या अदालत को दिए गए वचन का जानबूझकर उल्लंघन करना।
- आपराधिक अवमानना : किसी भी मामले के प्रकाशन (चाहे बोले गए या लिखित शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा या अन्यथा) या किसी भी कार्य को करना जो – (i) किसी भी अदालत के प्राधिकार को कम करता है; या (ii) किसी भी न्यायिक कार्यवाही के उचित क्रम में पूर्वाग्रह या हस्तक्षेप करता है या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति रखता है; या (iii) किसी अन्य तरीके से न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप करता है या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति रखता है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि अवमानना केवल अनादर से अलग है। अवमानना की याचिका किसी तीसरे पक्ष द्वारा भी शुरू की जा सकती है, बशर्ते कि याचिका पर क्रमशः सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के अटॉर्नी जनरल या एडवोकेट जनरल की सहमति हो।
आलोचना का तरीका
अब यह एक स्थापित सिद्धांत है कि किसी निर्णीत मामले की निष्पक्ष आलोचना करना अवमानना नहीं है, लेकिन निष्पक्ष टिप्पणी की सीमाओं का उल्लंघन करने वाली आलोचना अवमाननापूर्ण मानी जा सकती है, जैसा कि अश्विनी कुमार घोष बनाम अरबिंद बोस (1952) में कहा गया था। इसके अलावा, अनिल रतन सरकार बनाम हीरक घोष (2002) में, यह माना गया था कि अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति का प्रयोग सावधानी से किया जाना चाहिए और इसका प्रयोग केवल तभी किया जाना चाहिए जब किसी आदेश का स्पष्ट उल्लंघन हो। एम. वी. जयराजन बनाम केरल उच्च न्यायालय (2015) मामले में शीर्ष अदालत ने एक व्यक्ति के खिलाफ उच्च न्यायालय के आदेश की आलोचना करते हुए सार्वजनिक भाषण में अपमानजनक भाषा का प्रयोग करने के लिए अवमानना के फैसले को बरकरार रखा। और यह स्थापित किया कि इस तरह के कार्यों को न्यायपालिका के प्राधिकार को कमजोर करना और न्याय प्रशासन को बाधित करना माना जा सकता है। शीर्ष अदालत ने हाल ही में षणमुगम लक्ष्मीनारायणन बनाम मद्रास उच्च न्यायालय (2025) में माना है कि अवमानना के लिए दंडित करने का प्रमुख उद्देश्य न्याय प्रशासन सुनिश्चित करना है।
अदालतों के कार्यों की लोकतांत्रिक तरीके से आलोचना करना गलत नहीं है; लेकिन, यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि न्यायपालिका राज्य की प्राथमिकताएँ निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है ताकि न्याय प्रशासन की पवित्रता बनी रहे।

