सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बनाम समावेशी आय – UPSC

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जीडीपी आय का मापक है, संपत्ति का नहीं । जीडीपी से किसी  देश की वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य पता चलता है।

यह प्राकृतिक, भौतिक और मानवीय संपत्ति की जमा पूंजी को नहीं दिखाता है। जबकि समावेशी पूंजी (इनक्लूसिव वेल्थ) के अंतर्गत  शिक्षा, स्वास्थ्य और पारिस्थितिक पूंजी को रखा जा सकता है जो वास्तव में खुशहाली  का  आधार है
सवाल यह उठता है कि ऊंची आर्थिक विकास दर(जीडीपी)के बाद भी संपन्नता क्यों नजर नहीं आ रही है। जैसे कि-
 भारत में अब भी 22 करोड़ लोग  गरीब है

बेरोजगारी की दर 7 से 8 % के उच्च स्तर पर बनी हुई है
 भारत   कि एक बड़ी आबादी कुपोषित है अभी जब हंगर इंडेक्स जारी होता है तो भारत दुनिया के 120 देशों में 100 नंबर के आस-पास रहता है।
दरसल हम संपत्ति और आय के बीच उलझ जाते हैं। ये दोनों लोगों की आर्थिक खुशहाली और पूंजी को प्रदर्शित करने के अलग-अलग माध्यम हैं। इनक्लूसिव वेल्थ रिपोर्ट 2023 में 140 देशों के सर्वेक्षण में पाया गया है कि 44 देशों में 1998 के बाद प्रति व्यक्ति समावेशी पूंजी (इनक्लूसिव वेल्थ) आय में वृद्धि होने के बावजूद कम हुई है।

इसका मतलब है कि जीडीपी आधारित आर्थिक विकास में तेजी के बाद भी देश की इनक्लूसिव वेल्थ में बढ़ोतरी नहीं हो रही है।  इससे यह भी संकेत मिलता है कि पर्यावरण को पहुंचे नुकसान के रूप में आर्थिक विकास हमें किस प्रकार प्रभावित करता है। इसीलिए यह जानकर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि 1990 के बाद इनक्लूसिव वेल्थ में प्राकृतिक पूंजी की हिस्सेदारी कम हुई है, जबकि मानवीय और भौतिक पूंजी में लगातार बढ़ोतरी हुई है।

भारत में भी यह चलन देखा जा रहा है। 2005-15 दौरान जब लगभग सभी राज्यों में जीडीपी की औसत विकास दर 7-8 प्रतिशत थी, तब भी 11 राज्यों की प्राकृतिक पूंजी में गिरावट आई थी। इस दौरान 13 राज्यों में 0-5 प्रतिशत की मामूली वृद्धि हुई और केवल तीन राज्यों की प्राकृतिक पूंजी में 5 प्रतिशत से अधिक वृद्धि देखी गई। आर्थिक विकास का यह मॉडल देश के दीर्घकालीन विकास के लिए उपयुक्त नहीं है। इससे यह भी पता चलता है कि संपत्ति में भी असमानता बढ़ रही है।हम यह जानते हैं कि केवल मुट्ठी भर लोगों के पास ही अधिकतर आय क्रेंदित है। ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि देश प्राकृतिक पूंजी लगातार खो रहे हैं और निजी आय पुरानी लागत पर बढ़ रही है। ये प्राकृतिक संसाधन गरीबों की भी बड़ी पूंजी हैं। प्राकृतिक पूंजी से कुछ लोगों को तो आर्थिक फायदा पहुंचेगा, जबकि आर्थिक विकास के बावजूद गरीब पिछड़ जाएंगे।
किस प्रकार के कदम उठाये जाने कि आवश्यकता है –
इसका सबसे अच्छा उद्धरण न्यूजीलैंड है न्यूजीलैंड की सरकार ने 30 मई 2019 को दुनिया का पहला “वेलबीइंग बजट” पेश किया था।न्यूजीलैंड दुनिया का शायद पहला देश है जिसने अपने बजट में आर्थिक विकास की तरजीह न देते हुए लोक कल्याण को प्राथमिकता दी है।
भारत में आजादी के बाद जितनी भी पंचवर्षीय योजनाएं बनीं, उन सभी में पहला लक्ष्य कमोवेश आर्थिक विकास को ही रखा गया। अब भले ही पंचवर्षीय योजनाओं को बनाने वाले योजना आयोग को भंग का नीति आयोग बना दिया गया हो लेकिन सरकारों का पहला प्रेम अब भी आर्थिक विकास ही बना हुआ है।

आर्थिक विकास की होड़ में लोक कल्याण नेपथ्य में चला गया है। इसी आर्थिक विकास ने प्रदूषण को विकराल कर दिया है। भारत में 13 फीसदी मृत्यु का कारण वायु प्रदूषण बन रहा है। इसके सबसे बड़े शिकार हमारे बच्चे बन रहे हैं।भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का महज 1.3 प्रतिशत हिस्सा ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है। यह अफगानिस्तान, मालदीव और नेपाल से भी कम है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल 2018 के अनुसार, भारत उन देशों में शामिल है जो जन स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करते हैं। प्रति व्यक्ति के स्वास्थ्य पर सरकारी सालाना खर्च 1108 रुपए है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता भी चिंता का विषय है। देश की बड़ी आबादी वहनीय और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है। न्यूजीलैंड ने बता दिया है कि स्वस्थ समाज पर किया गया निवेश भले ही आर्थिक विकास की रफ्तार को थोड़ा कुंद कर दे लेकिन इससे देश की रीड़ जरूर मजबूत होगी।

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या गरीबी और असमानता से जूझ रहे भारत सहित दुनिया के बाकी देश न्यूजीलैंड से सबक लेंगे?