पश्चिमी अफ़्रीका में बुरकिना फ़ासो, गिनी, माली और चाड के बाद अब नाइजर में भी सेना सत्ता पर काबिज़ हो गई है वर्ष 1990 के बाद से अफ़्रीका के इस क्षेत्र में तख़्तापलट की 27 घटनाये हो चुकी है। सवाल यह उठता है कि क्या इन सबके लिए फ़्रांसीसी उपनिवेशवाद या उसकी विरासत ज़िम्मेदार है? क्योकि ये सभी देश फ़्रांस के पूर्व उपनिवेश रहे हैं।
सितंबर 2022 में माली की सेना ने कर्नल अब्दूलाए मैगा को देश का प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। कर्नल मैगा का आरोप है कि फ़्रांस ने माली में नव-उपनिवेशवाद को प्रोत्साहन दिया है बुर्किना फ़ासो में भी फ्रांस विरोधी विचार फल फूल रहे हैं। वहाँ भी सैन्य सरकार ने फ़्रांस के साथ लंबे वक़्त से जारी एक अहम समझौते को रद्द कर दिया है जिसके तहत फ़्रांस की सेना को बुर्किना फ़ासो में रहने की अनुमति थी और फ़रवरी 2023 में फ़्रांसीसी सेना को एक महीने के भीतर देश छोड़ने का आदेश दिया गया था । नाइजर, बुर्किना फ़ासो और माली का पड़ोसी देश है, नाइजर के राष्ट्रपति मोहम्मद बज़ूम पर आरोप था कि वे फ़्रांस की कठपुतली थे उन्हें सत्ता से हटाए जाने के बाद सैन्य प्रशासक अब्दुर्रहमान चियानी ने अब तक फ़्रांस के साथ पांच अहम सैन्य क़रार रद्द कर दिए हैं । सेना के सड़कों पर आने और राष्ट्रपति को हटाने के बाद लोगों से उनका जोर-शोर से स्वागत किया है।
फ्रांसीसी उपनिवेशवाद का काला सच
फ्रांसीसी उपनिवेशवाद ने पश्चिमी अफ़्रीका में एक ऐसा राजनीतिक तंत्र खड़ा किया था जिसका मकसद बहुमूल्य अफ़्रीकी संसाधनों को निकालने के साथ ही आम लोगों पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए बल प्रयोग करना था । ब्रिटिश उपनिवेशवाद भी यही करता था लेकिन फ़्रांस का रवैया कुछ अलग रहा है अफ़्रीका में पूर्व उपनिवेशों को आज़ादी तो मिल गई लेकिन फ़्रांसीसी हस्तक्षेप से निजात नहीं मिली । फ़्रांस अपने पूर्व उपनिवेशों की सियासत और अर्थव्यवस्था में भरपूर हस्तक्षेप करता रहा है । नौ में सात पूर्व उपनिवेश अब भी फ़्रांस करेंसी का इस्तेमाल करते हैं इस करेंसी की गारंटी फ़्रांस देता है, जो फ़्रांस के आर्थिक दख़ल का सबसे बड़ा सबूत है । फ़्रांस ने यहाँ ऐसे कई समझौते भी किए हैं जिनके ज़रिए वो अपनी पूर्व कॉलोनियों में अलोकप्रिय लेकिन फ़्रांस के हिमायती नेताओं को सत्ता में बनाए रखता है। ऐसे नेताओं में चाड के पूर्व राष्ट्रपति इदरिस डेबी और बुर्किना फ़ासो के पूर्व राष्ट्रपति ब्लेस कांपोर का नाम लिया जाता है ऐसे भ्रष्ट नेताओं की वजह से इस क्षेत्र में लोकतंत्र मज़बूत नहीं हो पाया ।
फ़्रांस्वा-ज़ेबियर नामक फ़्रांसीसी अर्थशास्त्री ने अफ़्रीका में फ़्रांस की नीतियों के लिए एक नाम दिया था – फ़्रांकअफ़्रिक़ जिसका अर्थ है – अफ़्रीका में पूर्व कॉलोनियों के साथ फ़्रांस की राजनीति और अर्थशास्त्री के उच्च वर्ग के साथ गुप्त आपराधिक संबंध । हाल की फ़्रांसीसी सरकारों ने इस फ़्रांकअफ़्रिक नीति से दूरी बनाई है। लेकिन अब भी फ़्रांस के अफ़्रीका में व्यापारिक हितों पर सवाल उठते रहे हैं ।
अफ़्रीकी देशो की सरकारे चरमपंथ से लड़ने में विफल रही है, ऐसे में इन देशों में सेना को अवसर मिल गया और उन्हें लगा कि अगर वे तख़्ता पलटते हैं तो जनता उनका साथ देगी । हो भी रहा है कुछ ऐसा ही दरसल इस क्षेत्र में असुरक्षा का अप्रत्याशित स्तर है । यहाँ हथियारबंद गुट, हिंसक चरमपंथी और आपराधियों के गैंग खुलेआम घूमते हैं । इस वजह से लोगों का सिविल सरकारों पर से विश्वास उठ गया है फिर भी यह मानना होगा पश्चिमी देशो का रवैया अफ्रीका के प्रति सही नहीं रहा है जबतक पश्चिमी देश अपने नव -उपनिवेशवादी हितो से ऊपर नहीं उठेंगे तब तक अफ्रीका में शांति की उम्मीद करना बेमानी होगा ।