यहूदियों के द्वारा मनाये जाने वाले यरूशलम दिवस पर इजराइल और फलस्तीनियों के मध्य जिस प्रकार से टकराव की स्थिति उत्पन्न हुई है उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि मध्य पूर्व की समस्या आज भी दुनिया की सबसे जटिल समस्याओ में से एक है।
कैसे इजराइल अस्तित्व में आया?
यदि इतिहास में थोड़ा पीछे जाएं तो प्रथम विश्वयुद्ध तक फलस्तीन एक स्वतंत्र अरब राज्य था जिसने महायुद्ध में जर्मनी और टर्की का साथ देकर मित्र राष्ट्रों से दुश्मनी मोल ले ली थी जिसकी उसे कीमत भी चुकानी पड़ी, 1922 में फलस्तीन को ब्रिटेन का मैंडेट राज्य घोषित कर दिया गया, ब्रिटेन के पास यह एक अच्छा अवसर था कि दुनिया भर के यहूदियों को फलस्तीन में लाकर बसाया जाये जिसे, यहूदी अपना मात्र घर मानते रहे है। वैसे भी 1920 से 1940 के मध्य यूरोप में यहूदियों का सबसे अधिक दमन हो रहा था।
1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा फलस्तीन को यहूदियों और अरबो के मध्य विभाजन की एक योजना प्रस्तुत की गयी थी जिसमे यरुशलम को एक अंतर्राष्ट्रीय शहर के रूप में मान्यता दी गयी थी। विभाजन की इस योजना को यहूदियों ने तो स्वीकार कर लिया था लेकिन फलस्तीनियों ने इसे ख़ारिज कर दिया था। विवाद के इस दौर में ही 1948 में एक स्वतंत्र यहूदी देश के रूप में इजराइल को मान्यता प्रदान कर दी गयी जिसके प्रतिक्रिया स्वरुप अरब देशो का धुर्वीकरण प्रारम्भ हुआ।
अरब-इजराइल संघर्ष
1949 में प्रथम अरब-इजराइल युद्ध शुरू हुआ। इस युद्ध में जॉर्डन के द्वारा पश्चिमी तट व् पूर्वी यरूशलम पर नियंत्रण कर लिए गया, जबकि गाज़ा क्षेत्र पर मिस्र ने अधिकार कर लिया था।
1967 के अरब-इजराइल संघर्ष में इजराइल ने जॉर्डन से पश्चिमी तट और पूर्वी यरूशलम छीन लिए थे जबकि मिस्र से गाजापट्टी के साथ-साथ सिनाई प्रायद्वीप पर भी उसने अधिकार कर लिया था, सीरिया को भी गोलन-हाइट क्षेत्र गवाना पड़ा था।
अरबो के धुर्वीकरण में बिखराव
अमेरिका का प्रारम्भ से ही यह प्रयास था कि अरबो के धुर्वीकरण में दरार डाली जाए और वह अपने इस उद्देश्य में सफल भी रहा। 1982 के समझौते के तहत मिस्र अरबो के गुट से बहार हो गया और इजराइल के द्वारा सिनाई प्रायद्वीप उसे वापस लौटा दिया गया।
जबकि इससे पहले 1967 में जॉर्डन को भी इस गुट से अलग किया जा चूका था। हताशा और निराशा के इस माहौल में फलस्तीनियों में अनेक चरमपंथी गुटों का उद्द्भव हुआ जिनमे हमास, ब्रदरहुड, और फलस्तीनी मुक्ति संगठन प्रमुख थे, इससे मध्य-पूर्व में आतंकवाद व् खून-खराबे का ऐसा दौर प्रारम्भ हुआ जिसमे किसी की जीत-हार का दावा नहीं किया जा सकता था। इस खून-खराबे को रोकने के लिए इजराइल के पास एक ही रास्ता था की शांति के बदले भूमि योजना के तहत फलस्तीनियों के साथ किसी अंतिम नतीजे पर पहुंचा जाये। अमेरिका की मध्यस्ता से दोनों पक्षों के बीच ऐतिहासिक ओस्लो समझौता हुआ जिसमे पीएलओ(फलस्तीनी मुक्ति संगठन) के प्रमुख यासर अराफात की अहम् भूमिका थी, इसके लिए ही उन्हें नोबल पुरूस्कार दिया गया था। इस समझौते के अनुसार पश्चिमी तट और गाजापट्टी को मिलाकर स्वायत फलस्तीनी राज्य के रूप में मान्यता दी जानी थी, और बदले में पीएलओ के द्वारा यह जिम्मेदारी ली गयी की सभी चरमपंथी गतिविधियों और संगठनो पर रोक लगायी जायेगी। इस समझौते को लेकर इजराइल के लोग भी दो खेमो में बंटे हुए थे एक खेमा समझौते का समर्थक था, जबकि दक्षिणपंथी खेमा किसी भी कीमत पर फलस्तीनियों को भूमि देने के पक्ष में नहीं था, इस दक्षिणपंथी खेमे का नेतृत्व लिक्कूड पार्टी के द्वारा किया जा रहा था, जिसने सत्ता में आते ही इस समझौते को नकार दिया था। ऐसे में हिंसा-प्रतिहिंसा का दौर फिर से प्रारम्भ हुआ और इसी माहौल में यासर अराफात की मृत्यु हो गयी। अब फलस्तीन की सत्ता हमास के हाथो में आ गयी थी जो कि प्रारम्भ से ही एक चरमपंथी गुट था और जिसे इजराइल स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था।
फलस्तीन और इजराइल के मध्य समस्याएं आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है जिस प्रकार से इजराइल पश्चिमी तट और गाजापट्टी में यहूदी बस्तियों को बसाने पर आमादा है , पूर्वी यरूशलम पर अपना दावा छोड़ने के लिए तैयार नहीं है ऐसे में नहीं लगता की मध्य-पूर्व में शांति स्थापित हो सकेगी। सबसे बड़ी समस्या अमेरिका की भूमिका को लेकर रही है उसने इस क्षेत्र में कभी भी एक ईमानदार दलाल की भूमिका नहीं निभाई, वह इजराइल की आक्रामकता पर कभी अंकुश नहीं लगा पाया, यदि अमेरिका चाहता तो उसे ओस्लो समझौते के लिए मजबूर कर सकता था, डोनाल्ड ट्रम्प ने एक शांति समझौते का प्रारूप तैयार करते हुए उसे सदी का सौदा नाम दिया था लेकिन जमीनी स्तर पर उसे कभी नहीं उतारा गया। मध्य पूर्व के मौजूदा टकराव के कारण अरब देशो में खलबली है, रमजान के पवित्र महीने में जिस प्रकार से इजराइल ने अल-अक़्सा मस्जिद पर आक्रमण किया है उससे सऊदी अरब, टर्की, ईरान, पाकिस्तान, कुवैत और खाड़ी देशो ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। यहाँ तक की संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने भी इस घटना पर नाराज़गी प्रकट की है जबकि इन दोनों देशो ने इजराइल के साथ हाल ही में अपने राजनयिक सम्बन्ध बहाल किये थे।