इस लेख में आप पढ़ेंगे : किसान आंदोलन की कामयाबी क्या जन आंदोलनों को और मुखरित करेगी – UPSC
एक साल तक चलने वाले किसान आंदोलन ने जिस प्रकार परचंड बहुमत वाली सरकार को तीन क़ानूनों की वापसी के लिए मजबूर किया है उससे देश भर में चल रहे दूसरे आंदोलनों को एक नया जीवन मिल गया है।
किसान आंदोलन की कामयाबी की सबसे बड़ी वजह ये नहीं थी कि किसान दिल्ली की सीमाओं पर जमे हुए थे बल्कि इस आंदोलन का दायरा लगातार बढ़ रहा था। जो किसान दिल्ली की सीमाओं पर इस आंदोलन में शामिल हो रहे थे, वो अपने गांव वापस लौटने पर वहां भी लोगों को किसान आंदोलन के बारे में बता रहे थे। बात धीरे-धीरे ज़मीनी स्तर पर पहुंचने लगी थी। इससे सरकार के विरोध में एक माहौल बनने लगा था। इस आंदोलन की सबसे ख़ास बात यह रही है कि यह आंदोलन पूरी तरह से अराजनीतिक और अहिंसक बना रहा रास्ते में तमाम तरह की अड़चनें और चुनौतियां आईं, लेकिन इन लोगों ने हिम्मत नहीं हारी।
वैसे किसान आंदोलन से पहले देश में नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) और एनआरसी का मुद्दा भी आंदोलन का रूप ले चुका था। नागरिकता संशोधन क़ानून के मुद्दे पर भी दिल्ली के शाहीन बाग़ सहित देश भर में कई जगहों पर आम लोगों ने सड़कों पर उतर कर आंदोलन का समर्थन किया। हालांकि उस आंदोलन को एक धर्म विशेष के चश्मे से देखा गया था। नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ बड़े तबक़े में महिलाएं की भी भागीदारी रही थी।
किसी भी परचंड बहुमत वाली सरकार के प्रति एक धारणा बनी रहती है कि आम लोगों के विरोध प्रदर्शनों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। सीएए आंदोलन को सरकार ने सांप्रदायिक रंग देकर कमज़ोर अवश्य कर दिया था। लेकिन किसान आंदोलन को हर तरह से बदनाम करने कि उनकी कोशिशें कामयाब नहीं हुई। वो इसलिए कि किसान आंदोलन के नेताओं का फ़ोकस बिल्कुल स्पष्ट था। किसान आंदोलन इसलिए कामयाब रहा, क्योंकि आंदोलन के शीर्ष नेताओं ने कोई समझौता नहीं किया। उन पर तरह-तरह के दबाव और प्रलोभन थे। लेकिन शीर्ष नेताओं ने आंदोलन को जमाए रखा। सरकार ने कितने ही अत्याचार किए लेकिन उनकी प्रतिबद्धता नहीं डिगी। देश के दूसरे तमाम आंदोलनों को यही सीख लेनी है कि लड़ाई में कभी समझौता नहीं करना है।
देश में कई अन्य मुद्दे और आंदोलन लंबे समय से लगातार प्रासंगिक बने हुए हैं. इनमें श्रम क़ानूनों का उदारीकरण, निजीकरण का विरोध, जातिगत जनगणना कराने की मांग, नई शिक्षा नीति और आरक्षण को ठीक से लागू करने जैसी मसले भी हैं। इनके साथ ही जल, जंगल और ज़मीन बचाने से लेकर रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे आम लोगों से जुड़े मुद्दे भी चर्चा में बने हुए हैं बड़ी-बड़ी सरकारी कंपनियों की बिक्री के ख़िलाफ़ भी आंदोलन ज़ोर पकड़ सकता है।
कोई दूसरा आंदोलन किसान आंदोलन जितना बड़ा हो जाए, ऐसा न तो ज़रूरी है और न ही संभव। किसान आंदोलन तो पूरी दुनिया में अपनी तरह का अकेला आंदोलन है। स्वतंत्र भारत में इस तरह का आंदोलन पहले कभी नहीं हुआ। ऐसे में दूसरे आंदोलन भी इस जैसा बन पाएंगे, इसकी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। लेकिन छोटे-छोटे आंदोलन भी न्याय की लड़ाई लड़ सकते हैं, ये हौसला भी होना चाहिए। उपेक्षित तबक़ा चाहे तो किसान आंदोलन से सबक लेते हुए आंदोलन का रास्ता चुन सकता है. किसान आंदोलन की कामयाबी ने एक तरह से इन आंदोलनों को एक नई ताक़त ज़रूर दी है।
किसान आन्दोलन सरकार के लिए भी एक सबक है। बहुमत के नशे में किसी को आन्दोलनजीवी, ख़ालिस्तानी और आतंकवादी करार देने से समस्या कम नहीं होगी, बल्कि और बढ़ेगी। लोकतंत्र में सरकार के पास संवाद सबसे बड़ा हथियार होता है और यह उसकी लोकप्रियता का पैमाना भी होता है। इतिहास में अशोक जैसे शासक लोकप्रिय ऐसे ही नहीं बने। उन्होंने अपने दरवाज़े सर्वहारा जन समाज के लिए हमेशा ही खुले रखे थे। प्रथम पृथक लेख में अशोक कहता है की मेरे प्रतिवेदक मुझसे कहीं भी आ कर मिल सकते हैं। तो फिर हमारे सत्ताधीश दैवीय आवरण क्यों धारण कर लेते हैं ? 700 से अधिक किसान दिल्ली की सीमाओं पर अपनी जान गवां देते हैं और हमारे सत्ताजीवी संवेदना भर प्रकट करना उचित नहीं समझते। किसान आन्दोलन अन्य जन आंदोलनों के लिए एक सन्देश यह भी देता है कि गांधीवाद आज भी ज़िंदा है और आगे भी रहेगा। प्रचंड बहुमत वाली सरकार आती-जाती रहेंगी।