न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और इसे लेकर विवाद – UPSC
Concept of MSP or Minimum support price of Wooden blocks on pile of wheet grains on isolated background

न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और इसे लेकर विवाद – UPSC

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केंद्र सरकार फसलों की एक न्यूनतम कीमत तय करती है। इसे ही एमएसपी कहते हैं। मान लीजिए अगर कभी फसलों की क़ीमत बाज़ार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार इस एमएसपी पर ही किसानों से फसल ख़रीदती है ताकि किसानों को नुक़सान से बचाया जा सके। 60 के दशक में सरकार ने अन्न की कमी से बचाने के लिए सबसे पहले गेहूं पर एमएसपी शुरू की, ताकि सरकार किसानों से गेहूं खरीद कर अपनी पीडीएस योजना के तहत ग़रीबों को बांट सके।

वैसे तो एमएसपी तय होती है इस आधार पर कि किसानों को उनकी लागत का 50 फीसद रिटर्न मिल जाए, लेकिन असल में ऐसा होता नहीं। कई जगह तो किसानों को एमएसपी से कम कीमत पर भी फसल बेचनी पड़ती है। और जब इसको लेकर कोई क़ानून ही नहीं है तो फिर किस अदालत में जाकर वह अपना हक़ मांगेंगे। सरकार चाहे तो एमएसपी कभी भी रोक भी सकती है क्योंकि ये सिर्फ एक नीति है कानून नहीं। और यही डर किसानों को है।

हर फसल पर केंद्र सरकार एमएसपी नहीं देती है। सिर्फ 23 फसलें ही हैं जिन पर एमएसपी तय होता है। कृषि मंत्रालय का एक विभाग कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कोस्ट्स एंड प्राइसेस (CACP) एमएसपी के लिए सुझाव देता है, ये कोई ऐसी संस्था नहीं है जो कानूनी रूप से एमएसपी लागू कर सके। अगस्त 2014 में बनी शांता कुमार कमेटी के मुताबिक़ 6 फीसद किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिल पाया है। बिहार में एमएसपी से खरीद नहीं की जाती। वहां राज्य सरकार ने प्राइमरी एग्रीकल्चर कॉपरेटिव सोसाइटीज़ यानी पैक्स के गठन किया था जो किसानों से अनाज खरीदती है। लेकिन किसानों की शिकायत है कि वहां पैक्स बहुत कम खरीद करती है, देर से करती है और ज़्यादातर उन्हें अपनी फसल कम कीमत पर बिचौलियों को बेचनी पड़ती है।

किस-किस फसल पर एमएसपी मिलता है?

  • इसमें 7 अनाज वाली फसलें हैं- धान, गेहूं, बाजरा, मक्का, ज्वार, रागी, जौ
  • 5 दालें – चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर
  • 7 ऑयलसीड – मूंग, सोयाबीन, सरसों, सूरजमुखी, तिल, नाइजर या काला तिल, कुसुम
  • 4 अन्य फसल – गन्ना, कपास, जूट, नारियल

इनमें से सिर्फ गन्ना ही है जिस पर कुछ हद तक कानूनी पाबंदी लागू होती है क्योंकि आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत एक आदेश के मुताबिक़ गन्ने पर उचित और लाभकारी मूल्य देना ज़रूरी है।

एसएसपी को लेकर किसानों की मांग क्या है?

आंदोलन कर रहे किसानों की मांग है कि सरकार एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर फसल ख़रीद को अपराध घोषित करे और एमएसपी पर सरकारी ख़रीद लागू रहे। साथ ही दूसरी फसलों को भी एमएसपी के दायरे में लाया जाए।

सरकार के लिए एमएसपी कितनी भारी पड़ती है ?

ये 23 फसलें भारत के कृषि उत्पाद का सिर्फ एक तिहाई हिस्सा ही हैं। मछली पालन, पशु पालन, सब्जियां, फल वगैरह इनमें शामिल ही नहीं हैं। अगर इन 23 फसलों के आँकड़ें देखें जाएं तो साल 2019-20 में सभी को मिलाकर 10.78 लाख करोड़ रुपये के बराबर का उत्पादन हुआ। लेकिन ये सारी फसल बेचने के लिए नहीं होती, किसानों के अपने इस्तेमाल के लिए भी होती है, बाज़ार में बिकने के लिए इन सब फसलों का अनुपात भी अलग होता है। जैसे 50 फीसदी रागी का होगा, तो 90 फीसद दालों का होगा. गेहूं 75 फीसदी होगा। तो अगर औसत 75 फीसदी भी मान लें तो ये 8 लाख करोड़ से कुछ ऊपर का उत्पादन होगा.तो सवाल ये कि अगर सरकार को किसानों को एमएसपी की गारंटी देनी है तो क्या इतना खर्च सरकार को करना होगा? इसका जवाब है नहीं। इन 23 में से गन्ने को निकाल दीजिए क्योंकि वो पैसा सरकार को नहीं देना पड़ता, वो शुगर मिलें देती हैं। सरकार अपनी एजेंसियों के ज़रिए पहले ही कुछ फसलों को खरीद लेती है। जिसकी कुल कीमत 2019-20 में 2.7 लाख करोड़ थी। सरकारी एजेंसियों को बाज़ार की सारी फसल खरीदने की ज़रूरत होती भी नहीं क्योंकि अगर सरकार कुल उत्पादन का एक तिहाई या एक चौथाई भी खरीद ले तो बाज़ार में कीमत अपने आप ऊपर आ जाती है। तो किसान अपनी फसल उस कीमत पर बाहर बेच देते हैं। सरकार जो खरीदती है, उसे बेचती भी है, हालांकि ये सब्सिडी वाली कीमत होती है। लेकिन इस सबको देखें तो सरकार को ये खरीद हर साल डेढ़ लाख करोड़ तक की पड़ती है।

सरकार किस तरह से किसानों को एमएसपी का लाभ दे सकती है?

  • पहला, सरकार प्राइवेट कंपनियों पर ही इसके लिए दबाव बना सकती है कि वे फसलों को एमएसपी पर खरीदें। जैसा गन्ने के लिए होता है।
  • दूसरा, सरकार अपनी एजेंसी जैसे भारतीय खाद्य निगम, भारतीय कपास निगम, के ज़रिए एमएसपी पर किसानों से फसल खरीदे।
  • तीसरा, जितना घाटा हो, वो सरकार किसानों को दे दे। ना वो खुद खरीदे और ना प्राइवेट कंपनियों पर ऐसा करने का दबाव बनाए। जो भी उस वक्त बाज़ार में कीमत है उस पर किसानों को फसल बेचने दे और उसमें एमएसपी और बाज़ार की कीमत में जो अंतर रह जाता है, वो सरकार किसानों को दे दे, जैसे किसान सम्मान निधि जैसी योजनाएँ चलाई ही जा रही हैं।

सरकार ये गारंटी लिख कर देने को तैयार क्यों नहीं है?

एमएसपी हमेशा एक ‘फेयर एवरेज क्वॉलिटी’ के लिए होता है। यानी फसल वैसी होगी जैसा कि तय किया गया है तो ही उसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाएगा। लेकिन कोई फसल गुणवत्ता के मानकों पर ठीक बैठती है या नहीं इसे तय कैसे किया जाएगा? जो फसल उन मानकों पर खरी नहीं उतरेगी उसका क्या होगा? ऐसी सूरत में सरकार क़ानून में किसानों की माँग को शामिल कर भी ले तो क़ानून को अमल में लाना मुश्किल होगा।

अगर बाकी फसलों को भी एमएसपी की गारंटी में शामिल कर लिया तो फिर उसका बजट भी सरकार को सोचना पड़ेगा। सरकार को कई कमेटियों ने सिफारिश दी है, कि गेहूं और धान की खरीद सरकार को कम करना चाहिए। सरकार इसी उद्देश्य के तहत काम भी कर रही है। आने वाले दिनों में ये ख़रीद कम होने वाली है। यही डर किसानों को सता भी रहा है। भविष्य में सरकारें कम खरीदेंगी तो ज़ाहिर है किसान निजी कंपनियों को फसलें बेचेंगे। निजी कंपनियाँ चाहेंगी कि वो एमएसपी से कम पर खरीदें ताकि उनका मुनाफ़ा बढ़ सके। सरकार के पास फिलहाल कोई रास्ता नहीं है जिससे वो एमएसपी पर पूरी फसल ख़रीदने के लिए निजी कंपनियों को बाध्य कर सके।