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भारत की ‘नेबरहुड फ़र्स्ट’ नीति कहाँ तक सफल रही है – UPSC

इस लेक में आप पढ़ेंगे: भारत की ‘नेबरहुड फ़र्स्ट’ नीति कहाँ तक सफल रही है – UPSC / India’s Neighbourhood First

क़रीब दस साल पहले भारत सरकार के द्वारा ‘नेबरहुड फ़र्स्ट‘ (Neighbourhood First) नीति प्रारम्भ की गई थी जिसका उद्देश्य भारत की विदेश नीति में पड़ोसी देशों को सबसे अधिक महत्व दिया जाना था. दूसरे शब्दों में कहें तो ‘नेबरहुड फ़र्स्ट’ की मूल बात यह है कि भारत भौगोलिक रूप से दूर (वह चाहे अमेरिका हो या नाइजीरिया) के मुकाबले दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों (श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और नेपाल आदि) के साथ संबंधों को ज़्यादा अहमियत देगा. हाल के दिनों में पड़ोसी देशो का राजनितिक घटनाक्रम जिस तेजी से बदला है, उससे भारत की ‘नेबरहुड फ़र्स्ट नीति पर प्रश्न चिन्ह खड़े होने लगे है जैसे कि –

  • भारी आर्थिक संकट के दौर में भारत ने जिस श्रीलंका की काफी मदद की थी, वहां की सरकार ने भारत को नज़रअंदाज़ कर चीन के जासूसी जहाज को अपने बंदरगाह पर लंगर डालने की अनुमति दी है.
  • नेपाल में नए संविधान को लागू करने के दौरान भारत के मौन समर्थन से चलाए गए ‘आर्थिक नाकेबंदी’ कार्यक्रम के ख़िलाफ़ नेपाल की आम जनता भारत विरोधी प्रदर्शनों में शामिल रही है. नेपाली सरकार का रैवया भी कमोवेश भारत विरोधी ही रहा है.
  • मालदीव में भी बीते साल चुनाव में भारत-समर्थक सरकार को सत्ता से हटा कर राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठने वाले मोहम्मद मुइज़्ज़ू ने तुरंत अपने देश से भारतीय सेना को हटाने की मांग उठा दी थी. उनकी पार्टी की ओर से चलाए गए ‘इंंडिया आउट’ अभियान को काफ़ी समर्थन मिला है और राष्ट्रपति मुइज़्ज़ू बिना किसी हिचकिचाहट के चीन की ओर झुक रहे हैं.
  • जो भूटान सामरिक, विदेशी और आर्थिक, लगभग तमाम मामलों में भारत पर निर्भर रहा है,अब उसने भी अकेले अपने दम पर चीन के साथ सीमा पर बातचीत शुरू कर दी है. उसने कूटनयिक संबंध स्थापना के चीन के प्रस्ताव को भी सीधे तौर पर ख़ारिज़ नहीं किया है.
  • अफ़ग़ानिस्तान और म्यांमार में सत्तारूढ़ सरकार के साथ भी भारत के संबंध अच्छे नहीं दिखाई पड़ते. तालिबान के साथ अब तक भारत का पूर्ण कूटनयिक संबंध स्थापित नहीं हो सका है. इन दोनों देशों में भारत की ओर से विभिन्न क्षेत्रों में किया गया सैकड़ों करोड़ का निवेश भी अब अनिश्चितता के भंवर में फंसा हुआ है.
  • अगर बांग्लादेश की मौजूदा परिस्थिति की चर्चा करें तो वहां भी भारत की विदेश नीति की  कमजोरी उजागर हुई है. मिसाल  के तौर पर भारत ने कभी भी प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को स्पष्ट रूप से इस बात की याद नहीं दिलाई कि वह ठीक रास्ते पर आगे नहीं बढ़ रही हैं और आम लोगों में उनके ख़िलाफ़ नाराज़गी बढ़ रही है. ऐसा कैसे हो गया कि भारत को इस बात की भनक तक नहीं मिली कि शेख़ हसीना को सत्ता से हटाए जाने की कोई संभावना है.

यदि दूसरे पहलू को देखे जो सच भी है, दक्षिण एशिया दुनिया का सबसे कम एकीकृत क्षेत्र है. यहां एक देश से दूसरे देश में आवाजाही या अंतरराष्ट्रीय सीमा संबंध जितने कठिन और जटिल हैं, उतना दुनिया के किसी और इलाक़े में नहीं हैं. दक्षिण एशियाई देशों में करीब 200 करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं और यह दुनिया का एक प्रमुख आर्थिक केंद्र ( इकोनॉमिक हब) बन सकता था. भारत को इस क्षेत्र में अल्पकालिक हितों के बजाय दीर्घकालिक हितो पर काम करना होगा. भारत खुद को एक क्षेत्रीय महाशक्ति के तौर पर स्थापित करना चाहता है, जिसमे कुछ गलत भी नहीं है लेकिन ऐसा करने की स्थिति में उसे इन पड़ोसी देशों के प्रति कुछ ज़िम्मेदारियों का भी पालन करना होगा. और एक बहुआयामी संबंध कायम करना होगा.

भारत की विदेश नीति में नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी कोई एकदम नई चीज भी नहीं है. तीन दशक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने दक्षिण एशिया में गुजराल डाक्टरीन के माध्यम से पड़ोसी ने क्या किया या क्या नहीं किया, यह सोचने की बजाय संबंधों में बेहतरी के लिए एकतरफा तरीके से कदम उठाये थे. अब भारत के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि वह चीन की तरह पड़ोसी देशों में बड़े पैमाने पर निवेश करने या वहां खैरात चलाने में आर्थिक तौर पर सक्षम नहीं है. जबकि भारत के लगभग सभी पड़ोसी उभरती अर्थव्यवस्थाएं हैं, उनकी अपनी उम्मीदें और विकास एजेंडा है. उनको पूरा करने के लिए चीन ने उनके लिए अपना खजाना खोल दिया है. यही वजह है कि पड़ोसी देश सांस्कृतिक या भौगोलिक रूप से भारत के जितने भी करीब हों, आर्थिक जरूरत के चलते वो चीन के प्रभाव में आ रहे हैं. ऐसे मामलों में भारत चाह कर बहुत कुछ नहीं कर सकता.