पेरिस समझौते से अमेरिका का बाहर होना जलवायु कार्रवाई के वैश्विक प्रयासों के लिए कितना बड़ा आघात है ? UPSC
President Donald Trump signs an executive order as he attends an indoor Presidential Inauguration parade event at Capital One Arena, Monday, Jan. 20, 2025, in Washington. (AP Photo/Evan Vucci)

पेरिस समझौते से अमेरिका का बाहर होना जलवायु कार्रवाई के वैश्विक प्रयासों के लिए कितना बड़ा आघात है ? UPSC

इस लेख में आप पढ़ेंगे: पेरिस समझौते से अमेरिका का बाहर होना जलवायु कार्रवाई के वैश्विक प्रयासों के लिए कितना बड़ा आघात है ? UPSC (US withdrawal from the Paris Agreement)

जब मजबूत वैश्विक गठबंधनों के माध्यम से कम-कार्बन भविष्य (Low Carbon Future) की रणनीति को लेकर दुनिया एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है, अमेरिका का पेरिस समझौते से बहार होना वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है। 2017-2019 में ट्रंप प्रशासन द्वारा समझौते से बाहर निकलने की घोषणा के बावजूद भी वह बहार नहीं हो पाया था, जिसके पीछे दो मुख्य वजह थी –

  • 2019 से एक साल की नोटिस अवधि लागू हुई थी, लेकिन 2020 में कोई कॉप शिखर सम्मेलन नहीं हुआ था।
  • अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 2021 में अमेरिका की भागीदारी को फिर से बहाल कर दिया था।

इस बार भी अमेरिका कॉप30 में ब्राजील में औपचारिक रूप से शामिल रहेगा, क्योंकि एक साल की नोटिस अवधि अनिवार्य है।

पेरिस समझौते से अमेरिका के बहार होने से निम्न प्रभाव पड सकते हैं:

  • अमेरिका यूएनएफसीसीसी (UNFCCC) के 22 प्रतिशत फंडिंग का योगदान करता है, ऐसे में अमेरिका के बहार होने से अंतरराष्ट्रीय जलवायु वित्त पोषण को बड़ा झटका लगेगा।
  • अमेरिका कार्बन उत्सर्जन में महत्वपूर्ण कमी करने में पहले से ही विफल रहा है। अब अमेरिका राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC- Nationally Determined Contributions) को आगे नहीं बढ़ाएगा, जिसे बाइडेन प्रशासन ने पिछले साल प्रस्तुत किया था और जिसका लक्ष्य 2005 के स्तर की तुलना में 2035 तक 61-66 प्रतिशत तक उत्सर्जन में कटौती करना था।
  • जलवायु प्रतिबद्धताओं को लेकर जब अमेरिका ही पीछे हट जायेगा तो बाकि देश भी ऐसी ही मनमानी के लिए स्वतंत्र हो जायेगे ।
  • हानि और क्षति निधियों (Loss and Damage Fund) की देयता और मुआवजे को लेकर विकासशील देशो की माँगो पर असर पड़ेगा।
  • विकासशील देश कहीं अधिक जटिल चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, जैसे कि बेरोजगारी, बढ़ता ऋण, मुद्रास्फीति और आर्थिक-सामरिक संघर्ष। भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों के लिए अमेरिका की निष्क्रियता जलवायु वित्त पोषण (Climate Finance) को खतरे में डाल सकती है।

हालाँकि अमेरिका के इस कदम के बाद जलवायु परिवर्तन से निपटने के वैश्विक प्रयासों को लेकर कुछ नए संभावित समीकरण भी बन सकते है, जैसे कि:

  • अब यूरोपीय संघ और चीन के नेतृत्व में जलवायु कार्रवाई को आगे बढ़ाया जा सकता है। ये देश अमेरिका को जवाबदेह ठहराने पर ध्यान देने की बजाय ‘इच्छुक गठबंधनों’ का अधिकतम उपयोग करने का निर्णय ले सकते हैं, जिसमें निजी क्षेत्र और ग्लोबल साउथ (वैश्विक दक्षिण) से नया नेतृत्व शामिल हो सकते हैं।
  • पूरा विश्व अमेरिका पर दबाव बना सकता है, आर्थिक प्रतिबंध लगा सकता है या ऐतिहासिक प्रदूषक टैक्स जैसे कदम उठा सकता है।
  • अब कई देश अपनी घरेलू नीतियों के तहत नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश को और प्रोत्साहन देंगे। ऊर्जा सुरक्षा और जलवायु कार्रवाई अब एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं। 2024 में यूरोपीय संघ में सौर ऊर्जा ने पहली बार कोयले को पीछे छोड़ दिया। चीन ने अपने नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता लक्ष्य को छह साल पहले ही हासिल कर लिया।
  • अब वैश्विक जलवायु कार्रवाई में गिरावट भी आ सकती है। शेष विश्व या तो अमेरिका के नक्शेकदम पर चलते हुए जलवायु कार्रवाई का विरोध कर सकता है, या फिर अमेरिका की निष्क्रियता के प्रतिशोध में इसका विरोध कर सकता है। ये देश यह कह सकते हैं कि वे अपनी आर्थिक वृद्धि और ऊर्जा सुरक्षा का बलिदान नहीं करना चाहते—जैसा कि ब्रिक्स ने अपने 2024 के बयान में संकेत दिया था।

कुल मिलाकर जलवायु संकट पहले ही हमारे दरवाजे पर दस्तक दे चुका है ,ऐसे में अमेरिका का पेरिस समझौते से बहार होना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। अमेरिका वर्तमान में वार्षिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 13 प्रतिशत का योगदान देता है। जलवायु परिवर्तन की जिम्मेदारी सामूहिक है, इसे किसी की सनक की भेट कैसे चढ़ाया जा सकता है ?