इस लेख में आप पढ़ेंगे: वैश्वीकरण से वि-भूमंडलीकरण (स्थानीयरण) की ओर बढ़ते कदम -UPSC / De-Globalization/ tariffs UPSC
ब्रेग्जिट से लेकर डोनाल्ड ट्रंप की वापसी तक ऐसा लग रहा है कि वि-भूमंडलीकरण का दौर लौट रहा है। राष्ट्रपति बनने के एक महीने के भीतर ही डोनाल्ड ट्रम्प ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे वैश्वीकरण के बजाय पहले अमेरिकीवाद को प्राथमिकता देंगे। और उसकी प्रतिक्रिया में यूरोपीय संघ, कनाडा, चीन और यहां तक कि भारत भी देर सबेर उसके पीछे चल पड़ेंगे।
वि-भूमंडलीकरण की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति है जैसे को तैसा की तर्ज पर आयातित सामानों पर टैरिफ बढ़ाए जाना। 1 फरवरी, 2025 को, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने मेक्सिको, कनाडा और चीन से आयात पर भारी शुल्क लगाए, जिससे तीव्र प्रतिशोध शुरू हो गया और उत्तरी अमेरिकी सहयोगियों के साथ संबंधों में तनाव भी आया। उन्होंने अवैध फेंटेनाइल उत्पादन और अवैध आप्रवासन पर चिंताओं का हवाला देते हुए अमेरिकियों की सुरक्षा के लिए इस कदम को आवश्यक बताया। उन्होंने आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं का हवाला देते हुए चीन से सभी आयातों पर 145% और कनाडा और मैक्सिको से आयात पर 25% टैरिफ लगाने के आदेश दिए। भारत भी इस अभिव्यक्ति से अछूता नहीं रहा है। 2 अप्रैल को, ट्रम्प प्रशासन ने भारत से आयात पर 26 प्रतिशत टैरिफ लगाया। भले ही इन सभी टैरिफों को 9 अप्रैल को 90 दिनों के लिए स्थगित कर दिया गया है, भारत और अधिकांश अन्य देशों के लिए 10 प्रतिशत ब्लैंकेट टैरिफ अभी से प्रभावी है, साथ ही सभी स्टील, एल्यूमीनियम और ऑटोमोबाइल आयात पर अलग से 25 प्रतिशत टैरिफ लागू है।
नब्बे के दशक के वैश्वीकरण ने विश्व समृद्धि के एक नए युग की शुरुआत को जन्म दिया। विश्व व्यापार संगठन (WTO) की स्थापना के बाद चीन के व्यापार ने उड़ान भरी और देखते ही देखते इसने दुनिया की मैन्युफैक्चरिंग से जुड़ी नौकरियों पर कब्जा जमा लिया। भारत ने भी टेलीमार्केटिंग जैसे आउटसोर्स बिजनेसों को अपना कर दुनिया में अपनी एक खास जगह बनाई है। हालाँकि वैश्वीकरण के फलसफे ने दुनिया को ज्यादा पेचीदा और जटिल भी बना दिया था। 1990 के शुरुआती दशक में जब ‘शुल्क तथा व्यापार पर सामान्य समझौता’ यानी जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड ‘गैट’ पर बहसें अपने शबाब पर थीं, तब उत्तर (विकसित) और दक्षिण (विकासशील) के देशों में एक स्पष्ट विभाजन था। उस समय दुनिया के विकसित देश बाजार को खोलने के लिए जोर लगा रहे थे।जबकि उस समय विकासशील देशों वाली दुनिया इस बात को लेकर चिंतित थी कि मुक्त व्यापार का विचार, उनकी नवजात और कमजोर अर्थव्यवस्थाओं पर कैसा असर डालेगा।उन्हें इस बात का डर था कि खुले व्यापार के ये नए नियम उनके किसानों पर कैसा असर डालेंगे, जिन्हें विकसित दुनिया के असंगत रूप से सब्सिडी प्राप्त किसानों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी। 1999 में WTO की सिएटल बठैक में यह तनाव चरम पर था।
वैश्वीकरण का अगला दशक आर्थिक संकट के साथ शुरू हुआ लेकिन अब भारत और चीन मुक्त व्यापार के नए संरक्षक के तौर पर उभरते देखे गए हैं दरअसल इन दोनों में से चीन, इस स्थिति से ज्यादा, बहुत ज्यादा हासिल करना चाहता था। वैश्वीकरण के पहले चरण में श्रम का कुछ हद तक विस्थापन हुआ और इसी बात पर ट्रंप दुःखी भी रहे है, लेकिन सच यह भी है कि वैश्वीकरण के इस चरण का मतलब पुराने अभिजात्य वर्ग (व्यापार और उपभोक्तावाद की दुनिया में मध्यम वर्ग) और नए अभिजात्य वर्ग के बीच युद्ध ही था।
वैश्वीकरण के विरुद्ध लोगो के गुस्से का एक उदाहरण फ्राँस में देखा गया था। पीली जर्सी पहनकर पेरिस में लोग सरकार के खिलाफ सड़कों पर इसलिए उतरे क्योंकि उनकी सरकार जलवायु परिवर्तन का मुकाबला, ईंधन की कीमतें बढ़ाकर करना चाहती थी। लोगों का इमैनुअल मैक्रां को संदेश था कि आपको दुनिया के खत्म होने की चिंता हो सकती है, लेकिन हमें इस सप्ताह के अंत की चिंता है। ईंधन के बढ़े दाम- चीजों की बढ़ी हुई कीमतों, टैक्सेस और बेरोजगारी के विरोध में लोगों के गुस्से का प्रतीक बन गए थे।
बीस सालों में वैश्वीकरण का विचार कड़वा साबित हुआ है। इसके समर्थक ही निरंकुश वैश्विक व्यापार की इस शानदार योजना से मुंह मोड़ रहे हैं, जो राष्ट्रीय सरकारों की सब्सिडी और समर्थन की खामियों के बिना बनाई गई थी। अब सवाल यह है कि जलवायु परिवर्तन और युद्धों के मुहाने पर खड़ी दुनिया में इस नए वैश्वीकरण के नियम क्या आकार लेंगे? फिलहाल सबसे ज्यादा सुखियों में रहने वाला मुद्दा चीन के खिलाफ अमेरिकी का रुख है। इसे निरंकुश और अलोकतांत्रिक शासन के खिलाफ लड़ाई के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन असली कारण संसाधनों और तकनीक पर नियंत्रण पाने का है, जिसमें वह हरित अर्थव्यवस्था भी शामिल है, जिसकी दुनिया को तत्काल जरूरत है। बैट्रियों की सप्लाई चेन पर चीन का दबदबा है, यह दुनिया की आधे से ज्यादा लीथियम, कोबाल्ट और ग्रेफाइट की प्रोसेसिंग करता है और सोलर एनर्जी के क्षेत्र मे अग्रणी है। इस ‘दुश्मन’ से लड़ने के लिए अमेरिका ने अपनी सभी वैचारिक शंकाओं को छोड़ने का फैसला लिया है। मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम (आईआरए) अमेरिका में कम कार्बन वाले उत्पादों के निर्माण के लिए कम्पनियों को वित्तीय मदद दे रहा है। दुर्लभ खनिजों तक पहुंच के प्रयास किए जा रहे है। इसके लिए अमेरिका यूक्रेन को समझौते के लिए बाध्य भी कर रहा है, और ग्रीनलैंड तक को खरीदने की बात कर रहा है।
वि-भूमंडलीकरण की नीति के तहत अमेरिका मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम (आईआरए) के जरिए इलेक्ट्रिक वाहनों के स्थानीय निर्माण को समर्थन दे रहा है। इसने अधिसूचना जारी की है कि जिन इलेक्ट्रिक वाहनों में चीन निर्मित बैट्री उपकरण लगे होंगे, वे पूरी सब्सिडी के लिए उपयुक्त नहीं होंगे। यही चीज भारत में भी है। हमने तय किया है कि सोलर इंडस्ट्री में स्थानीय क्षमता में निवेश किया जाए और यह सही भी है। भारत सरकार ने सौर सेल और मॉड्यूल निर्माण के लिए राजकोषीय प्रोत्साहन का ऐलान किया है और चीनी उत्पादों पर उच्च आयात शुल्क लगाया है। अभी यह कहना मुश्किल है कि इससे भारत के महत्वाकांक्षी नवीकरण कार्यक्रम में बाधा आएगी या नहीं क्योंकि घरेलू उत्पादन की गति प्रतिस्पर्धा के अनुकूल नहीं भी हो सकती है।
कुल मिलाकर दुनिया वि-भूमंडलीकरण के रास्ते पर निकल चुकी है, नतीजे क्या होंगे देखना होगा।