इस लेख में आप पढ़ेंगे: मध्य -पूर्व की जंग को आखिर कौन रोक सकता है? : UPSC / Conflict in the Middle East
7 अक्तूबर, 2023 को हमास के हमले में 1200 से ज़्यादा इजरायली नागरिको की मौत हुई थी और इसके बाद इसराइल ने गाज़ा में जो जंग छेड़ी, उसमें अब तक 42 हज़ार से ज़्यादा फ़लस्तीनी मारे जा चुके हैं. इस जंग में हमास के शीर्ष नेता इस्माइल हनिया ,याह्या सिनवार और हिज़्बुल्लाह नेता हसन नसरल्लाह मारे जा चुके है. युद्ध का दायरा गाजा पट्टी और दक्षिण लेबनान से आगे निकलकर ईरान तक विस्तृत हो सकता है. पिछले एक साल के दौरान इसराइल-गज़ा संघर्ष में स्थायी युद्धविराम समझौते के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे है. सवाल उठता है कि आखिर यह नरसंहार रुकेगा कैसे ?
मध्यपूर्व का आधुनिक इतिहास दरअसल विफल शांति प्रयासों का इतिहास बन कर रह गया है:
- इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच शांति प्रयास 1993 में ओस्लो शांति समझौते के साथ शुरू हुआ था. इस ऐतिहासिक समझौते पर अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, इसराइली प्रधानमंत्री यित्ज़ाक रबीन और तत्कालीन फ़लस्तीनी नेता और पीएलओ के प्रमुख यासिर अराफ़ात ने हस्ताक्षर किए थे. इस समझौते के तहत ग़ज़ा पट्टी और पश्चिम तट पर प्रशासन के लिए पांच सालों तक के लिए एक फ़लस्तीनी प्रशासन का गठन किया जाना था, लेकिन शीघ्र ही समझौता वार्ताएं विफल हो गयीं.
- इसके बाद अगला शांति प्रयास 2020 में अमेरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अब्राहम समझौते के तहत हुआ, जिसका उद्देश्य इसराइल के बहरीन, अरब अमीरात और अन्य अरब देशों के साथ संबंध सामान्य करना था. उम्मीद की जा रही थी कि इससे मध्यपूर्व में तनाव कम होगा.
- मगर इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच शांतिवार्ता पर ख़ास ध्यान नहीं दिया गया और फिर 7 अक्तूबर 2023 को लड़ाई छिड़ गयी. पिछले छह महीनों के दौरान अमेरिका के नेतृत्व में कतर के साथ मिल कर ग़ज़ा संघर्ष को रोकने और हमास की कै़द से इसराइली बंधकों की रिहाई के लिए कई प्रयास किए गए, मगर दुर्भाग्यवश वो सफल नहीं हो पाए.
मध्यपूर्व के राजनितिक समीकरण किस प्रकार के है ?
इसराइल इस क्षेत्र से हमास और हिज़्बुल्लाह को ख़त्म करना चाहता है. मगर इन दोनों गुटों को सहायता मिलती है ईरान से. दरसल ईरान मध्यपूर्व में एक्सिस ऑफ़ रेज़िस्टंस (axis of resistance) या प्रतिरोध की धूरी खड़ी करना चाहता है ताकि इसराइल की घेराबंदी की जा सके. इस प्रतिरोध की धूरी में यमन, सीरिया और लेबनान शामिल हैं. ईरान इस धुरी के ज़रिए इसराइल को कमज़ोर करना चाहता है, क्योंकि सीधी लड़ाई में ईरान की परंपरागत युद्ध क्षमता इसराइल के मुकाबले काफ़ी कम है. फ़िलहाल तो ईरान की यह नीति असफल नज़र आ रही है, क्योंकि हमास और हिज़्बुल्लाह सैनिक दृष्टि से टूट चुके हैं. हमास के घोषणापत्र के अनुसार तो वह इसराइल का नामोनिशान मिटाना चाहता है. ऐसा ही रवैया हिज़्बुल्लाह का भी है. इसराइल भी कई दशकों से लड़ाई लड़ता रहा है, मगर वो अपने प्रतिद्वंदियों को सामरिक तौर पर नष्ट नहीं कर पाया है. वो लगातार पुर्नसंगठित होते रहे हैं.
अगर देखा जाए तो मध्यपूर्व की समस्या का समाधान ढूंढने के रास्ते में हम वहीं आ खड़े हुए हैं, जहां से चले थे. शांति के लिए सबसे पहले ज़रूरत है कि संघर्ष में शामिल सभी पक्षों को बातचीत की मेज़ पर लाया जाए. मगर यह काम कौन कर सकता है? अमेरिका मध्यपूर्व को लेकर कभी विश्वसनीय मध्यस्थ नही रहा है. संयुक्त राष्ट्र अपने आप में प्रभावशाली शक्ति नहीं है, बल्कि वो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों की नीति और फ़ैसलों पर निर्भर है. यूरोपीय संघ के मध्यपूर्व के कई देशों के साथ व्यापारिक संबंध है, मगर वहां की समस्या के समाधान के लिए यूरोपीय संघ एकजुट होकर कोई ठोस कदम नहीं उठा पाया है, क्योंकि उसके सदस्य देशों में इस मुद्दे पर कई मतभेद हैं. मध्यपूर्व में पहले जो भूमिका अमेरिका निभाता था, उसकी जगह यह भूमिका कौन निभाए यह एक बड़ा सवाल भी है और चुनौती भी. इस क्षेत्र में रूस और चीन का प्रभाव तो है, लेकिन वो इस भूमिका को अपनाने में ख़ास रुचि नहीं रखते. मध्यपूर्व समस्या का कूटनीतिक समाधान ढूंढने के लिए खाड़ी के देश सक्रियता से काम कर रहे हैं. कत़र अपना रुतबा बढ़ाने के लिए अधिक खुल कर काम कर रहा है, जबकि ओमान भी सक्रियता से इस दिशा में काम कर रहा है. तुर्की भी शांति प्रयासों में मध्यस्थता के लिए कोशिश कर रहा है. इन प्रयासों में मोरोक्को भी शामिल है. लेकिन इनमें से कोई भी देश क्षेत्रीय महाशक्ति नहीं है. सऊदी अरब शांति प्रयासों में अहम भूमिका निभा सकता है. एतिहासिक तौर पर उसके अमेरिका के साथ करीबी संबंध रहे हैं. इसराइल और अरब देशों के बीच संबंध सामान्य करने के लिए 2020 में किए गए अब्राहम समझौते में भी सऊदी अरब की बड़ी भूमिका थी.
कुल मिलाकर मध्यपूर्व की स्थित पहले कभी इतनी विकट नहीं हुई थी. अमेरिका निश्चित ही समझौता वार्ताओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. मगर वो क्षेत्र में पहले जैसी कूटनीतिक ताकत नहीं रहा है. इस समस्या का समाधान निकालने में दूसरे देश बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. इन देशों में कतर, ओमान और सऊदी अरब शामिल हैं. दुनिया की व्यवस्था बदल चुकी है. अब मध्यपूर्व के देश समस्या के समाधान के लिए पश्चिम की ओर देखने के बजाय ख़ुद कोशिश करते दिखाई दे रहे हैं.