करीब तीन साल पहले 6 जुलाई 2018 को अमेरिका और चीन के मध्य व्यापार-युद्ध उस समय प्रारम्भ हुआ था जब अमेरिका ने चीन से होने वाले आयात पर टैरिफ शुल्क लगाने की घोषणा की थी, तब से लेकर आज तक यह व्यापार युद्ध निरंतर जारी है जबकि अमेरिका में जो बाइडन को भी सत्ता में आये 3 माह हो चुके है।
अमेरिका की चीन को लेकर 3 प्रमुख शिकायते रही है जिनके चलते यह व्यापार युद्ध प्रारम्भ हुआ था :-
- चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 350 अरब डॉलर तक बढ़ चुका था
- चीन अनुचित व्यापार, जैसे कि बौद्धिक सम्पदा कि चोरी को बढ़ावा देता रहा है
- चीन में कार्यरत्त अमेरिकी कंपनियों पर तकनीकि हस्तांतरण को लेकर दबाव डाला जाता रहा है
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने क्रमिक रूप से 355 अरब डॉलर के चीनी आयात पर टैरिफ थोप दिया था वही चीन ने बदले कि कार्यवाही करते हुए 110 अरब डॉलर के अमेरिकी आयात पर टैरिफ कि घोषणा कर दी थी। ज्ञात रहे कि अमेरिका कि करीब 70 हजार कम्पनिया चीन में कार्यरत है , अमेरिका को लगता था कि उसके द्वारा उठाये गए कदमो से ये कम्पनिया वापस अपने देश आ जाएँगी या भारत जैसे देश का रुख करेंगी। भारत को भी उम्मीद थी कि ‘चीन +1’ विचार के तहत ये कम्पनियाँ भारत में अपनी औद्योगिक इकाइयों को स्थापित करेंगी , भारत ने करीब 250 अमेरिकी कंपनियों के साथ संपर्क भी स्थापित किया था लेकिन इन कंपनियों ने भारत के बजाए वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड की ओर रुख करना अधिक बेहतर समझा। दरअसल भारत में सप्लाई चैन, वैल्यू चैन और निवेशों को आकर्षित न करने कि दशाये अधिक गंभीर मानी गयी है। चीन +1 विचार के तहत दक्षिण पूर्वी एशियाई देशो में इन कंपनियों का जाना इसलिए भी तर्कसंगत था कि ये देश चीन के साथ क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक सांझेदारी (RCEP) से जुड़े है।
आज चीन केवल अमेरिका के लिए ही नहीं पूरी दुनिया के लिए चुनौती बन चूका है। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी पाबंदियों के बावजूद 2020 में अमेरिका और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार 560 अरब डॉलर का रहा है जो 2019 कि तुलना में अधिक है। अमेरिका का चीनी आयात 2020 में 438 .8 अरब डॉलर का रहा है जो 2019 के मुकाबले 18 अरब डॉलर कम है। इस व्यापार युद्ध के दौर में चीन अमेरिका को पीछे छोड़ यूरोपियन संघ का भी सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बन चूका है। वर्ष 2020 में चीन और यूरोपियन संघ के बीच व्यापार 709 अरब डॉलर का रहा है जबकि इसकी तुलना में यूरोपियन संघ के साथ अमेरिका का व्यापार 2020 में 761 अरब डॉलर का रहा है।
वर्ष 2020 में प्रमुख वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं में चीन ही एक मात्र देश रहा है जहाँ आर्थिक विकास देखा गया है। इस व्यापार युद्ध को किसी कि जीत अथवा हार के रूप में नहीं देखा जा सकता फिर भी अमेरिका को इससे कहीं अधिक नुक्सान हो रहा है। कोरोना महामारी से उभरने के कारण अमेरिका में माँग का इज़ाफ़ा हुआ है जबकि भारत में कोरोना महामारी की दूसरी लहर के कारण फैक्ट्रियां बंद पड़ी है, इससे दुनियाभर में चीनी वस्तुओ की बाजार में वृद्धि हुई है। अमेरिका को चाहिए कि वो अपने पुराने शीतयुद्ध कि मानसिकता से बहार निकले और चीन कि पूर्व सोवियत संघ से तुलना करने कि मूर्खता न करे। 21 वी शताब्दी में दुनिया की 4 बड़ी शक्तियां अर्थात भारत, अमेरिका, रूस , और चीन मिलकर यदि जी-4 फोरम की स्थापना करें जो कि एक यूटोपिया धारणा है , तो चारो देशो के आपसी मतभेद भी समाप्त हो सकते है। यह तो तय है कि व्यापार युद्ध हमेशा के लिए जारी नहीं रह सकता, ये या तो अधिक हिंसक प्रकृति के अन्य टकरावो में बढ़ सकता है या दोनों देशो के बीच धीरे-धीरे समझौता हो सकता है। समझौता होने कि सूरत में चीन ओर अमेरिका दोनों व्यापार-युद्ध की जीत का दावा कर सकते हैं।
व्यापार-युद्ध भले ही अभी जारी है लेकिन दोनों देशो के आयात ओर निर्यात एक दूसरे पर इतने निर्भर है कि इस रिश्ते को तोडना मुश्किल है। अमेरिकी फर्स्ट का नारा राजनीतिक अधिक प्रतीत होता है क्योकि दुनिया पूंजीवाद के रास्ते पर इतना आगे निकल चुकी है कि उससे एकदम यु-टर्न लेना संभव नहीं है।
नोट – ‘चीन+1’ का अभिप्राय है की चीन स्थित कम्पनियाँ अपने व्यापार या उद्योग का एक हिस्सा किसी दूसरे देश में ले जाएँगी और बड़ा हिस्सा चीन में ही रहेगा।