ईरान और पश्चिमी देशो के मध्य परमाणु मुद्दे को लेकर पिछले एक दशक से रस्सा-कसी की स्थिति बनी हुई है। वर्ष 2010 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद्, अमेरिका और यूरोपियन संघ ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को देखते हुए उस पर आर्थिक प्रतिबन्ध थोप दिए थे । दोनों पक्षों ने तनाव को कम करने के उद्देश्य से जुलाई 2015 में संयुक्त व्यापक कार्य योजना के नाम से एक समझौत किया था। जिस पर सुरक्षा परिषद् के 5 स्थाई सदस्य (USA , ब्रिटेन , रूस, फ्रांस,चीन) के अलावा जर्मनी ने भी हस्ताक्षर किये थे।
समझौते के अनुसार –
- ईरान 3.67% यूरेनियम को ही संवर्धित कर सकता था,
- वह अपने सभी परमाणु स्थलों को अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की निगरानी के लिए खोलेगा,
- अमेरिका और उसके मित्र-राष्ट्रों के द्वारा ईरान पर जो आर्थिक प्रतिबन्ध थोपे गए थे उन्हें वापस ले लिया जाएगा।
यह समझौता खाड़ी क्षेत्र में भी तनाव को कम करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था क्योकि ईरान और इजराइल के मध्य हमेशा से ही छत्तीस का आंकड़ा रहा है।
अमेरिका और ईरान के सम्बन्धो में एक महत्वपूर्ण मोड़ उस समय आया जब मई 2018 में डोनाल्ड ट्रम्प सरकार ने 2015 के समझौते से पीछे हटते हुए ईरान पर ओर अधिक कड़े आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा कर दी थी। अमेरिकी सरकार का तर्क था की ईरान के बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम और क्षेत्रीय संघर्ष में उसकी भागीदारी को रोकने के लिए ऐसा करना जरुरी था, तब से लेकर दोनों देशो के बीच तनाव में कुछ और कारक भी उत्प्रेरक का काम करते रहे है, जैसे की ईरान के परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फाखरीजादेह और शीर्ष सैनिक कमांडर, कासिम सुलेमानी की हत्या तथा इजराइल के द्वारा उसके नाँताज़ परमाणु केंद्र पर हमला। इन घटनाओ को देखते हुए ईरान की सरकार ने एक नया कानून पास कर दिया था जिसके तहत अब ईरान 20% तक यूरेनियम संवर्धन कर सकता था और अब अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के सदस्य उसके परमाणु संयंत्रों का निरीक्षण नहीं कर सकते थे ।
अमेरिका की नव-निर्वाचित सरकार ने जिस प्रकार से 2015 के समझौते को फिर से बहाल करने की मंशा प्रकट की है उससे खाड़ी क्षेत्र में तनाव कम होने की सम्भावना दिखाई देती है। हालाँकि पहले आप, पहले आप का खेल अभी भी दोनों देशों के मध्य चल रहा है अमेरिका चाहता है की पहले ईरान परमाणु समझौते की शर्तो को लागू करे वहीँ ईरान चाहता है की पहले उस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को वापस लिया जाये। समझौते की प्रगति को इस सन्दर्भ में भी समझा जा सकता है की ईरान के मसले को लेकर फरवरी 2021 में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के मध्य पेरिस में एक बैठक संपन्न हो चुकी है और अप्रैल 2021 में इसी प्रकार की एक बैठक विएना में भी आयोजित की गयी है। दबाव ईरान की ओर से भी बना हुआ है ताकि उस पर लगे प्रतिबंधों को जल्द से जल्द वापस लिया जा सके।
पिछले कुछ समय से खाड़ी क्षेत्र में जिस प्रकार से रूस की सक्रियता बढ़ी है और रूस ईरान तथा चीन को लेकर एक गठजोड़ खड़ा करने के लिए प्रयासरत है उसको लेकर अमेरिका की बेचैनी समझी जा सकती है, अब जो बाइडन सरकार को तय करना होगा की वह 2015 की शर्तो के साथ वापस लौटना चाहेंगे या फिर ईरान के साथ टकराव को नए सिरे से रेखांकित करना चाहेंगे क्योकि ईरान अपने परमाणु संवर्धन के ग्रेड को बढ़ाने की धमकी बार-बार देता रहा है।