1967 से पहले फिलिस्तीन और इजराइल की समस्या अरब देशों की समस्या थी। लेकिन 1967 के अरब-इजराइल युद्ध में इजराइल की जीत के साथ ही यह समस्या इजराइल-फिलिस्तीन की समस्या बन कर रह गई। हाल ही में इजराइल और हमास के मध्य पूर्वी यरूशलेम को लेकर टकराव के जो हालात बने हुए हैं उससे अरब देशों में हलचल देखी जा सकती है। सवाल यह उठता है की मौजूदा तनाव की स्थिति में क्या अरब देशों में फिर से धुर्वीकरण संभव है?
सऊदी अरब और तुर्की हमेशा से ही एक दुसरे के प्रतिद्वंदी रहे हैं और दोनों के बीच मुस्लिम वर्ल्ड के नेतृत्व की होड़ भी रही है। लेकिन हाल ही में ये दोनों देश खुल कर फिलिस्तीनियों के समर्थन में बोल रहे हैं। तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन तो इजराइल को कड़ा सबक सिखाने का आह्वाहन कर रहे हैं। प्रथम विश्व युद्ध के पहले फ़लस्तीन ऑटोमन साम्राज्य का एक इलाक़ा था। ऐसे में अर्दोआन के बढ़-चढ़कर बोलने की एक ऐतिहासिक वजह यह भी है। लेकिन तुर्की की ओर से फ़लस्तीनियों के समर्थन के कुछ विरोधाभास भी हैं। सऊदी अरब का इसराइल के साथ राजनयिक संबंध नहीं है, जबकि तुर्की और इसराइल में 1949 से ही राजनयिक संबंध हैं। तुर्की इसराइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम बहुल देश था। अरब देशों में UAE और बहरीन ने इजराइल के साथ हाल ही में अपने राजनयिक सम्बन्ध कायम किये थे। इनके बाद सूडान और मोरक्को ने भी इसराइल से राजनयिक संबंध कायम करने का फ़ैसला किया था। ऐसा ही दबाव सऊदी अरब पर भी था. लेकिन सऊदी अरब ने ऐसा नहीं किया और कहा कि जब तक फ़लस्तीन 1967 की सीमा के तहत एक स्वतंत्र मुल्क नहीं बन जाता है तब तक इसराइल से औपचारिक रिश्ता कायम नहीं करेगा।
सऊदी अरब और हमास के रिश्ते भी उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। 1980 के दशक में हमास के बनने के बाद से सऊदी अरब के साथ उसके सालों तक अच्छे संबंध रहे है। 2000 के दशक में हमास की क़रीबी ईरान से बढ़ी। हमास एक सुन्नी इस्लामिक संगठन है जबकि ईरान शिया मुस्लिम देश लेकिन दोनों की क़रीबी इस्लामिक राजनीति की वजह से है। ईरान से क़रीबी के कारण सऊदी अरब से हमास की दूरी बढ़ना लाज़िम था क्योंकि सऊदी अरब और ईरान के बीच दुश्मनी है। ऐसे में हमास किसी एक का ही क़रीबी रह सकता है। इसराइल का जितना खुला विरोध ईरान करता है, उतना मध्य-पूर्व में कोई नहीं करता है। ऐसे में हमास और ईरान की क़रीबी स्वाभाविक हो जाती है। हालांकि हमास ने मौजूदा तनाव को देखते हुए सऊदी अरब और ईरान को एक साथ आने की अपील की है। दरअसल इस्लामिक देशों की प्रतिक्रिया दिखावे भर से ज़्यादा कुछ नहीं है। ज़्यादातर इस्लामिक देश राजशाही वाले हैं और वहां की जनता का ग़ुस्सा जनादेश के रूप में आने का मौक़ा नहीं मिलता है. ऐसे में वहाँ के शासक फ़लस्तीनियों के समर्थन में कुछ बोलकर रस्मअदायगी कर लेते हैं। तुर्की या सऊदी अरब से इसराइल का कुछ भी नहीं बिगड़ने वाला है और अगर कोई दख़ल दे सकता है तो वो अमेरिका है लेकिन वहाँ की दक्षिणपंथी लॉबी इसराइल के समर्थन में मज़बूती से खड़ी है।
इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी केवल सऊदी अरब के हितों को पूरा करने वाला संगठन माना जाता है। ऐसे में उससे भी ज़्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती की वह फिलिस्तीन की मुद्दे पर सम्पूर्ण अरब जगत को एक मंच पर ला सकता है। अतः अरब देशों की प्रतिक्रिया मात्र एक दिखावा प्रतीत होती है और उनमे अब फिलिस्तीन को लेकर धुर्वीकरण संभव नहीं है। क्योंकि इनके हित कही न कही परस्पर टकराते हैं।
#NOTE: हमास : यह फिलिस्तीन का एक चरमपंथी गट रहा है जिसकी स्थापना 1980 के दशक में हुई थी। PLO के प्रमुख यासर अराफात की मृत्यु के पश्चात फिलिस्तीनियों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। इजराइल ने हमास को कभी मान्यता नहीं दी है।