रूस-यूक्रेन (Russia-Ukraine) युद्ध क्या एक नई विश्व व्यवस्था की दस्तक है?

रूस-यूक्रेन (Russia-Ukraine) युद्ध क्या एक नई विश्व व्यवस्था की दस्तक है?

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ऐसा प्रतीत होता है कि रूस-यूक्रेन (Russia-Ukraine) युद्ध ने विकसित और विकासशील देशों के बीच की खाई को और गहरा कर दिया है। पश्चिमी देशों को लगता है कि इस जंग ने मौजूदा विश्व व्यवस्था के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है। विकसित देश (अमेरिका और यूरोपीय देश) शुरू से ही भारत, चीन, दक्षिण अफ़्रीका और ब्राज़ील जैसे विकासशील देशों को इस बात के लिए राज़ी करने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं कि वो रूसी आक्रमण के ख़िलाफ़ मोार्चाबंदी में उनके साथ आ जाएँ। दरसल पश्चिमी देश, यूक्रेन पर रूस के हमले को न केवल यूरोप पर हमला मानते है बल्कि इसे लोकतांत्रिक दुनिया पर भी आक्रमण मानते है। और इसीलिए वो चाहते हैं कि दुनिया की उभरती हुई ताक़तें यूक्रेन पर हमले के लिए रूस की निंदा करें। लेकिन भारत और चीन के साथ-साथ, कई दूसरे विकासशील देश भी रूस और यूक्रेन के युद्ध को पूरी दुनिया पर आक्रमण न मानकर इसे मोटे तौर पर यूरोप की समस्या मानते हैं।

देखा जाए तो ज़्यादातर विकासशील देशों ने यूक्रेन में युद्ध को लेकर बहुत सोची-समझी निरपेक्षता का रास्ता चुना है, जिससे अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों और स्थिरता के बजाय उनके अपने हित पुरे होते है। ग़ैर-पश्चिमी देशों का यह रवैया आख़िर में रूस को फ़ायदा पहुँचाने वाला साबित हो रहा है।

मौजूदा विश्व व्यवस्था अमेरिका ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दौर में खड़ी की थी। पिछले 70 साल से यह विश्व व्यवस्था ही पश्चिम पर केंद्रित उदारवादी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की अगुवाई कर रही है, जिसे खुलेपन, वैश्विक नियमों और बहुपक्षीय सहयोग की बुनियाद पर खड़ा किया गया था। आज यह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था भयंकर संकट की शिकार है। मध्य पूर्व, पूर्वी एशिया और यहाँ तक कि पश्चिमी यूरोप में लंबे समय से चली आ रही क्षेत्रीय व्यवस्थाओं में या तो बदलाव आ रहा है, या वो टूटकर बिखर रही हैं। ऐसा लगता है कि व्यापार, हथियार नियंत्रण और पर्यावरण से लेकर मानव अधिकार तक के वैश्विक अंतरराष्ट्रीय समझौते और संस्थाएँ कमज़ोर हो रहे हैं। हालांकि यूक्रेन युद्ध से बहुत पहले से ही मौजूदा विश्व व्यवस्था को चीन जैसी उभरती हुई वैश्विक शक्तियों से चुनौती मिल रही थी और, भारत जैसे देश यह सवाल उठा रहे थे कि आख़िर संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्थाओं में उभरती हुई ताक़तों का प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है? अमेरिका की अगुवाई वाली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के इस संकट से उभरते हुए देशों के लिए नए अवसर पैदा हों सकते है। ख़ास तौर से चीन, भारत और दूसरे ग़ैर पश्चिमी विकासशील देशों के लिए। इन मौक़ों की मदद से ये विकासशील देश विश्व व्यवस्था को नए स्वरूप में ढाल सकेंगे। लेकिन बड़ा सवाल यह भी उठता है कि क्या नई विश्व व्यवस्था बनाने के लिए उभरते हुए देश, दूसरे विश्व युद्ध के बाद के नियमों और संस्थानों को सुधारने और पुनर्गठित करने का प्रयास कर रहे हैं? या फिर वें मौजूदा विश्व व्यवस्था की सत्ता में साझेदारी हासिल करना चाह रहे हैं?

मौजूदा विश्व व्यवस्था में अमेरिका का दबदबा केवल दो वजहों से है: उसकी सेना और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में उसके शानदार आविष्कार और तरक़्क़ी। अमेरिकी ताक़त के ये दो सबसे मज़बूत स्तंभ हैं। चीन के अलावा आज बाक़ी दुनिया का सारा का सारा संचार और संवाद, पाँच अमेरिकी कंपनियों के क़ब्ज़े में है। यूक्रेन युद्ध में भी सबसे अहम किरदार एलन मस्क के स्टारलिंक सैटेलाइट अदा कर रहे हैं।

यूक्रेन युद्ध का ख़ात्मा निश्चित रूप से दुनिया के सामरिक नक़्शे को नए सिरे से गढ़ सकता है। इस जंग का असर एशिया पर भी पड़ने वाला है। अगर यह युद्ध रूस के ख़िलाफ़ जाता है, तो इसका नतीजा पूरे उत्तरी एशिया पर नज़र आएगा। अगर जंग का फ़ैसला रूस के हक़ में जाता है, वह अपने दम पर खड़े रहने में सफल होता है, और चीन के साथ अपने रिश्ते और मज़बूत बना लेता है, तो हो सकता है कि एशिया के सामरिक समीकरण किसी और दिशा में आगे बढ़ जाएँ।

मौजूदा विश्व व्यवस्था के ख़िलाफ़ शिकायतों का एक इतिहास है। इसकी बड़ी वजह संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद की बनावट भी है। केवल पांच देशों को ही वीटो का अधिकार क्यों मिलना चाहिए? भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाना आगे बढ़ने का एक रास्ता हो सकता है। किसी-न-किसी तरह की नई व्यवस्था तो बनानी ही होगी। जब तक सुरक्षा परिषद में सुधार नहीं होगा तब तक उस विश्व व्यवस्था को चुनौती मिलती रहेगी जिसे अमेरिका के नेतृत्व वाली दुनिया कहते हैं। उपनिवेशवाद के बाद के दौर में पश्चिम को समझना होगा कि उन्हें सत्ता बाक़ी दुनिया से साझा करनी ही होगी। भारत, चीन और दूसरे विकासशील देश एक अलग विश्व व्यवस्था चाहते हैं, लेकिन क्या यह एशियाई सदी होगी? एशियाई सदी का विचार भी अतिवादी ही होगा क्योंकि एशियाई सदी ठीक वैसी ही सोच है, जो विकसित ताक़तों की थी। दुनिया ने सौ साल तक ब्रितानी सदी का दौर देखा। उसके बाद मौजूदा विश्व व्यवस्था अमेरिकी सदी दुनिया के सामने है। नई विश्व व्यवस्था में संयुक्त राष्ट्र के साथ -साथ अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन में व्यापक सुधार की आवश्यकता है।