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AFSPA: क्या है सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून ?

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हाल ही में, नागालैंड के मोन जिले में सुरक्षा बलों की गोलीबारी में आम नागरिकों के मारे जाने की दुर्घटना के  कारण ‘सशस्त्र बल (विशेष शक्ति) अधिनियम, 1958 (AFSPA)‘ को वापस लेने की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी है। मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराड के. संगमा ने भी इस मांग का समर्थन किया है। हालाँकि यह कोई नई मांग नहीं है। ज्ञात है कि मणिपुर से अफ्सपा को हटाने की मांग करते हुए इरोम शर्मीला ने 2 नवंबर, 2000 से लगातार 16 वर्षों तक अनशन किया था। यही नही, सिविल सोसाइटी, मानवाधिकार कार्यकर्ता और पूर्वोत्तर क्षेत्र के नेता वर्षों से इस कानून की आड़ में सुरक्षा बलों पर ज्यादती करने का आरोप लगाकर इसकी वापसी की मांग कर रहे हैं। इस मांग की वर्तमान परिस्थितियों को समझने से पहले, यह समझना अनिवार्य है कि अफस्पा क्या है और इसकी उत्पत्ति कहाँ से होती है।

क्या है अफ्स्पा (AFSPA)?

अफ्स्पा ‘अशांत क्षेत्र ‘ निर्धारित किए इलाकों में शान्ति और सार्वजनिक व्यवस्था (Public Order) बनाए रखने के लिए सशस्त्र बलों को विशेष शक्तियां प्रदान करता है। जैसे की –

  • AFSPA सशस्त्र बलों को कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को चेतावनी देने के बाद बल प्रयोग करने, यहां तक ​​कि गोली चलाने का अधिकार देता है।
  • यह अधिनियम बलों को बिना वारंट के, किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और परिसर में प्रवेश करने और तलाशी लेने की भी अनुमति देता है।
  • AFSPA सुरक्षा बलों को कानूनी कार्यवाही से भी बचाता है। यह अधिनियम न केवल तीन सशस्त्र बलों पर बल्कि अर्धसैनिक बलों जैसे केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) और सीमा सुरक्षा बल (BSF) पर भी लागू होता है।
  • सुरक्षा बलों के पास एक क्षेत्र में पांच या अधिक व्यक्तियों के एकत्र होने पर रोक लगाने का अधिकार है।
  • सुरक्षा बलों के पास हथियार रखने पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार है।

अशांत क्षेत्र वह है जहां “नागरिक शक्ति (civil power) की सहायता में सशस्त्र बलों का उपयोग आवश्यक है“। AFSPA की धारा 3 के तहत, किसी भी क्षेत्र को विभिन्न धार्मिक, नस्लीय, भाषा, या क्षेत्रीय समूहों समुदायों के सदस्यों के बीच मतभेदों के कारण अशांत घोषित किया जा सकता है। किसी भी क्षेत्र को “अशांत” घोषित करने की शक्ति शुरू में राज्यों के पास थी, लेकिन 1972 में केंद्र (गृह मंत्रालय) को पारित कर दी गई। किसी ‘अशांत’ प्रदेश (राज्य या केंद्रशासित प्रदेश) के राज्यपाल द्वारा भारत के राजपत्र में आधिकारिक सूचना जारी की जाती है। राजपत्र में सूचना निकलते ही संबंधित क्षेत्र को ‘अशांत’ मान लिया जाता है और तब केंद्र सरकार वहां की पुलिस की शांति बहाली में मदद के लिए सशस्त्र बलों को भेजती है। अशांत क्षेत्र (विशेष न्यायालय) अधिनियम, 1976 के अनुसार, एक बार अशांत घोषित होने के बाद, क्षेत्र को तीन महीने की अवधि के लिए अशांत के रूप में बनाए रखा जाता है। राज्य सरकार यह सुझाव दे सकती है कि अधिनियम की राज्य में आवश्यकता है या नही।

अफ्सपा को साल 1958 में संसद की स्वीकृति मिली थी। शुरू में यह पूर्वोत्तर और पंजाब के उन क्षेत्रों में लगाया गया था, जिनको ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित कर दिया गया था। इनमें से ज्यादातर ‘अशांत क्षेत्र’ की सीमाएं पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश और म्यांमार से सटी थीं। आज AFSPA नागालैंड के अलावा असम, मणिपुर (इम्फाल नगर परिषद इलाके को छोड़कर), अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग, लोंगडिंग, तिरप जिलों और असम की सीमा पर आठ पुलिस स्टेशन से लगने वाले इलाकों में लागू है। पूर्वोत्तर के इन राज्यों के अलावा जम्मू-कश्मीर में भी अफ्सपा के तहत सुरक्षा की विशेष व्यवस्था की गई है। त्रिपुरा और मेघालय के कुछ हिस्सों को सूची से हटा दिया गया है।

कानून की उत्पत्ति

देश में कई अन्य विवादास्पद कानूनों की तरह, अफस्पा भी एक औपनिवेशिक विरासत है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार (वायसराय लिनलिथगो) ने सैन्य बलों को विशेष अधिकार दिए थे। 1947 में भारत के विभाजन के दौरान, चार अध्यादेश- बंगाल अशांत क्षेत्र (सशस्त्र बलों की विशेष शक्तियां) अध्यादेश; असम अशांत क्षेत्र (सशस्त्र बलों की विशेष शक्तियां) अध्यादेश; पूर्वी बंगाल अशांत क्षेत्र (सशस्त्र बलों की विशेष शक्तियां) अध्यादेश; संयुक्त प्रांत अशांत क्षेत्र (सशस्त्र बलों की विशेष शक्तियां) अध्यादेश भारत सरकार द्वारा देश में आंतरिक सुरक्षा की स्थिति से निपटने के लिए लागू किये गए थे। आजादी के बाद, जब नागालैंड में उग्रवादी गतिविधियां सामने आने लगी, तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने इस कानून को जारी रखने का फैसला किया और अध्यादेश लाकर वहां सेना भेजी। तब उन्होंने कहा था कि छह महीने के लिए सेना भेजी जा रही है, हालात संभलते ही सैन्य बलों को वापस बुला लिया जाएगा। लेकिन जब हालात काबू में नहीं आए तो अध्यादेश को कानून की शक्ल दे दी गई। भारत के संविधान का अनुच्छेद 355 प्रत्येक राज्य को आंतरिक अशांति से बचाने के लिए केंद्र सरकार को सशक्त करता है।

AFSPA अस्तित्व में आने के साथ ही 1 सितंबर 1958 से असम और मणिपुर में लागू हो गया था। फिर 1972 में कुछ संशोधनों के बाद इसे त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नगालैंड सहित पूरे पूर्वोत्तर भारत में लागू कर दिया गया। बाद में पंजाब, चंडीगढ़ और जम्मू-कश्मीर भी इसके दायरे में आया। भिंडरावाले के नेतृत्व में पंजाब में जब अलगाववादी आंदोलन शुरू हुआ तो अक्टूबर 1983 में पूरे पंजाब और केंद्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ में अफ्सपा (The Armed Forces (Punjab and Chandigarh) Special Powers Act, 1983) लागू कर दिया गया। बाद में भिंडरावाले के मारे जाने के बाद 1997 में पंजाब और चंडीगढ़ से अफ्सपा को वापस ले लिया गया था। त्रिपुरा में उग्रवाद शांत होने पर मई 2015 में अफ्सपा को हटाया गया था। वहां यह कानून 18 साल तक लागू रहा था। इसी तरह, 1990 के दशक में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने जोर पकड़ा तो जम्मू-कश्मीर में भी अध्यादेश के जरिए अफ्सपा लागू किया गया। फिर एक साल बाद 5 जुलाई 1990 में अलग कानून (The Armed Forces (Jammu and Kashmir) Special Powers Act, 1990)बना दिया गया जो वहां आज तक लागू है। इस कानून से लेह-लद्दाख का क्षेत्र प्रभावित नहीं है। 2015 में नागालैंड के उग्रवादी समूह का केंद्र सरकार के साथ समझौता हुआ था। सबसे हैरानी की बात तो यह है कि इस समझौते के बावजूद नागालैंड में अफ्स्पा कायम है। AFSPA के पक्षधरों के अनुसार नागालैंड की राष्ट्रीय समाजवादी परिषद (NSCN-IM) एक “ग्रेटर नागालिम” (एक संप्रभु राज्य) की मांग करती रहती है, इसलिए यह अधिनियम अभी भी नागालैंड में लागू है। 

AFSPA जैसे मनमाने कानून सशस्त्र बलों को अभूतपूर्व शक्ति देते हैं। यहाँ तक कि वर्ष 2005 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में अफ्सपा को खत्म करने की सिफारिश की थी। पांच सदस्यीय इस समिति ने 6 जून 2005 को 147 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें अफ्सपा को ‘दमन का प्रतीक’ बताया गया था। हालांकि, सेना और रक्षा मंत्रालय के विरोध के चलते केंद्र सरकार ने इस सिफारिश को खारिज कर दिया। दरअसल, वर्ष 2004 में मणिपुर में असम राइफल्स की हिरासत में एक महिला थंगजाम मनोरमा की मौत के विरोध में हुए आंदोलन और इरोम शर्मिला द्वारा किए जा रहे अनिश्चितकालीन हड़ताल के चलते 2004 में जस्टिस रेड्डी कमेटी का गठन हुआ था। ह्यूमन राइट्स वॉच भी इस कानून को लेकर समय-समय पर आपत्तियां जताता रहता है।

AFSPA को लेकर यह चर्चा प्रश्न उठाती है कि क्या एक लोकतंत्र में अफ्स्पा जैसे कठोर कानून के लिए जगह है? जब यह कानून बनाया गया था तब परिस्थितियां कुछ और थी। क्या औपनिवेशिक दमन से प्रेरित कोई कानून आधुनिक लोकतंत्र में कायम रह सकता है? और यदि नही तो विकल्प क्या है? रेड्डी समिति के अनुसार अफस्पा को निरस्त किया जाना चाहिए और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 में उचित प्रावधान शामिल किए जाने चाहिए। प्रत्येक जिले में जहां सशस्त्र बल तैनात हैं, शिकायत प्रकोष्ठ स्थापित किए जाने चाहिए। वर्षों से हुई कई मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाओं के कारण अधिनियम की यथास्थिति अब स्वीकार्य समाधान नहीं है। AFSPA उन क्षेत्रों में उत्पीड़न का प्रतीक बन गया है जहां इसे लागू किया गया है। इसलिए सरकार को प्रभावित लोगों को संबोधित करने और उन्हें अनुकूल कार्रवाई के लिए आश्वस्त करने की आवश्यकता है। सेना को आतंकवाद और विद्रोही गतिविधियों से लड़ने के लिए क्षेत्र के लोगों का समर्थन चाहिए। इसलिए सशस्त्र बलों को स्थानीय लोगों के बीच डर नही बल्कि विश्वास का निर्माण करने कि आवश्यकता है।