कार्बन बजट (Carbon Budget) – UPSC

कार्बन बजट (Carbon Budget) – UPSC

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कार्बन बजट का निर्माण इस अवधारणा के आधार पर किया गया है कि वैश्विक तापमान बढ़ने और वातावरण में छोड़ी गई कार्बन डाइऑक्साइड के बीच एक रैखिक संबंध है। जैसे-जैसे कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़ता है, वैसे-वैसे वातावरण का तापमान भी बढ़ता है।

1870 से लेकर 1989 तक, यूनाईटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेशन ऑन क्लाईमेट चेंज, यानी यूएनएफसीसीसी के गठन से तीन साल पहले तक छह देश, जिनमें यूनाईटेड किंगडम, अमेरिका, रूस, जापान, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा शामिल थे, यूरोपीय संघ के साथ मिलकर दुनिया की कुल कार्बन डाइऑक्साइड का 77 फीसदी उत्सर्जित करते थे। तब केवल अमेरिका 31.26 फीसदी कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करता था, जबकि चीन 5.11 फीसदी। तब भारत समेत बाकी दुनिया का इसमें योगदान ज्यादा नहीं था।

1990 से 2019 के बीच चीन के एक नई ताकत के तौर पर उभरने के बाद कार्बन उत्सर्जन में उसका योगदान भी तीन दशक में 5.11 फीसद से बढ़कर 20.7 फीसदी हो गया। चीन के योगदान में यह उछाल उसके साल 2000 में विश्व व्यापार संगठन से जुड़ने के बाद आया। 2015 से 2019 के बीच उत्सर्जन में उसकी हिस्सेदारी बढ़कर 26 फीसदी हो गई।हालांकि जिस तरह उत्सर्जन में चीन की हिस्सेदारी बढ़ी, उसी अनुपात में बाकी अमीर देशों की इसमें हिस्सेदारी कम नहीं हुई। दरअसल, बाकी दुनिया ने तो एक तरह से चीन के लिए रास्ता ही तैयार किया। 2019 के बाद से चीन और सात मूल उत्सर्जक देश कार्बन स्पेस का अधिकतम हिस्सा घेरने लगे। 1990 से 2019 के बीच इन देशों का कार्बन उत्सर्जन में योगदान 67 फीसदी था। बाकी दुनिया, जहां 66 फीसद आबादी रहती है, वह महज 33 फीसदी कार्बन स्पेस घेर रही है।

अगर हम, औद्योेगिक क्रांति की शुरूआत यानी 1870 से वर्तमान दौर यानी 2019 तक को देखें तो कार्बन बजट का यह अनुपात और विसंगति वाला दिखेगा। 1870 से 2019 तक अमेरिका, ईयू-27, रूस, यूके, आस्ट्रेलिया, कनाडा और जापान, जिनमें 2019 में दुनिया की केवल 15 फीसद आबादी रहती थी, कुल उत्सर्जन का 61 फीसद हिस्सा घेरते थे। अगर इसमें चीन को भी जोड़ लें तो इसकी कुल आबादी 34 फीसदी और उत्सर्जन 74 फीसदी था। भारत इस सूची में तीसरे या चौथे नंबर है, जो दुनिया की 18 फीसदी आबादी का घर होने के साथ 3.16 फीसदी उत्सर्जन कर रहा था।

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल यानी आईपीसीसी के 2014 के कार्बन डाइऑक्साइड के 2250 गीगाटन के बजट के संदर्भ में देखें तो दुनिया ने 2019 तक इसका 73 फीसदी हिस्सा खत्म कर लिया है।इसमें चीन और बाकी सात मूल देशों को योगदान 54 फीसदी रहा। यानी यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि दुनिया ऐतिहासिक रूप से कार्बन बजट के गलत बंटवारे के रास्ते पर चल रही है। जब जीवाश्म ईंधन उद्योग अभी भी खरबों की सब्सिडी प्राप्त कर रहे हैं, जब देश अभी भी कोयला संयंत्रों का निर्माण कर रहे हैं, तो कार्बन में कटौती या कार्बन-कटिंग लक्ष्यों का वादा खोखला हो जाता है।

कॉप-26 जलवायु शिखर सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र की तीन घोषित प्राथमिकताओं में से किसी को हासिल करना आसान नहीं होगा इनमें से एक 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में लगभग 50 फीसदी की कटौती का लक्ष्य हासिल करना है। अन्य दो प्राथमिकताओं में अमीर देशों द्वारा गरीब देशों को जलवायु को लेकर वित्तीय सहायता प्रदान करना है। इसमें प्रति वर्ष 100 बिलियन डॉलर प्रदान करने के 12 साल पुराने संकल्प को पूरा करना हैं। इसमें यह सुनिश्चित करना कि उस राशि का आधा हिस्सा उन्हें जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों से निपटने में मदद करने के लिए हो।