इस लेख में आप पढ़ेंगे: जातिगत जनगणना (Caste Census) का औचित्य – UPSC
आजकल बिहार में जातिगत सर्वेक्षण चर्चा का विषय बना हुआ है। दो चरणों में की जा रही इस प्रक्रिया का पहला चरण 31 मई तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। इसके दूसरे चरण में बिहार में रहने वाले लोगों की जाति, उप-जाति और सामाजिक-आर्थिक स्थिति से जुड़ी जानकारियाँ जुटाई जाएँगी। बिहार में किए जा रहे जातिगत सर्वे को चुनौती देने के लिए एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने विचार करने से इनकार कर दिया है और कहा है कि याचिकाकर्ता को पटना हाई कोर्ट में अपनी अपील दाखिल करनी चाहिए। याचिकाकर्ता का कहना था कि बिहार में हो रही ये प्रक्रिया संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन है क्योंकि जनगणना का विषय संविधान की सातवीं अनुसूची की पहली सूची में आता है और इसलिए इस तरह की जनगणना को कराने का अधिकार केवल केंद्र सरकार को है। इस जनहित याचिका में ये भी कहा गया था कि 1948 के जनगणना क़ानून में जातिगत जनगणना करवाने का कोई प्रावधान नहीं है।
जातिगत जनगणना (caste census) का इतिहास
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना करने की शुरुआत साल 1872 में की गई थी। अंग्रेज़ों ने साल 1931 तक जितनी बार भी भारत की जनगणना कराई, उसमें जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज़ किया गया। आज़ादी के बाद भारत ने जब साल 1951 में पहली बार जनगणना की, तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया। तब से लेकर भारत सरकार ने एक नीतिगत फ़ैसले के तहत जातिगत जनगणना से परहेज़ किया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मसले से जुड़े मामलों में दोहराया कि क़ानून के हिसाब से जातिगत जनगणना नहीं की जा सकती, क्योंकि संविधान जनसंख्या को मानता है, जाति या धर्म को नहीं।
हालात तब बदले जब 1980 के दशक में कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय हुआ, जिनकी राजनीति जाति पर आधारित थी। साल 1979 में भारत सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया था। मंडल कमीशन ने ओबीसी श्रेणी के लोगों को आरक्षण देने की सिफ़ारिश की। लेकिन इस सिफ़ारिश को 1990 में ही जाकर लागू किया जा सका चूंकि जातिगत जनगणना का मामला आरक्षण से जुड़ चुका था। इसलिए समय-समय पर राजनीतिक दल इसकी मांग उठाने लग गए। आख़िरकार साल 2010 में जब एक बड़ी संख्या में सांसदों ने जातिगत जनगणना की मांग की, तो तत्कालीन कांग्रेस सरकार को इसके लिए राज़ी होना पड़ा। 2011 में सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना करवाई तो गई, लेकिन इस प्रक्रिया में हासिल किए गए जाति से जुड़े आंकड़े कभी सार्वजानिक नहीं किए गए। इसी तरह साल 2015 में कर्नाटक में जातिगत जनगणना करवाई गई, लेकिन इसमें हासिल किए गए आंकड़े भी कभी सार्वजानिक नहीं किए गए। केंद्र का दावा है कि जहां भारत में 1931 में हुई पहली जनगणना में देश में कुल जातियों की संख्या 4,147 थी वहीं 2011 में हुई जाति जनगणना के बाद देश में जो कुल जातियों की संख्या निकली वो 46 लाख से भी ज़्यादा थी।
जातिगत जनगणना (caste census) के लाभ
- इस तरह की जनगणना करवाने से जो आंकड़े मिलेंगे। उन्हें आधार बना कर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ समाज के उन तबक़ों तक पहुँचाया जा सकेगा, जिन्हें उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।
- जातिगत जनगणना होने से जो आंकड़े सामने आएंगे उनसे ये तथ्य सामने आएंगे कि किसकी कितनी संख्या है और समाज के संसाधनों में किसकी कितनी हिस्सेदारी है।
- इसमें अगर विषमता सामने आती है तो इसका सामने आना हमारे समाज के लिए अच्छा है। लम्बे दौर में ये समाज के स्वास्थ्य के लिए बहुत ज़रूरी है। जितनी जल्दी हम इसका सामना करते हैं उतना हमारे समाज के लिए अच्छा होगा।
जातिगत जनगणना (caste census) से समस्या
- एक बड़ी चिंता ये है कि जातिगत जनगणना से जो आंकड़े मिलेंगे उनके आधार पर देश भर में आरक्षण की नई मांगें उठनी शुरू हो जाएँगी। हालाँकिआरक्षण की जो पचास प्रतिशत की सीमा तय की गई है, उसे सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस (EWS) आरक्षण के मामले में सुनाये गए फ़ैसले में दरकिनार कर दिया है।
- दूसरी समस्या यह है अगर जातिगत जनगणना करवाने के पक्ष में ये तर्क दिया जाता है कि इससे सामाजिक लोकतंत्र मज़बूत होगा, तो ये सवाल भी उठाया जाता है कि इस तरह की जनगणना करवाने से जो सामाजिक विभाजन होगा, उनसे कैसे निपटा जायेगा? इस बात का डर सबको है कि इससे समाज में एक जातिगत ध्रुवीकरण बढ़ सकता है। इससे समाज में लोगों के आपसी सम्बन्ध प्रभावित हो सकते हैं।
क्या भारत को जातिगत जनगणना (caste census) की ज़रूरत है?
समाज में जाति को अगर ख़त्म करना है, तो जाति की वजह से मिल रहे विशेषाधिकारों को पहले ख़त्म करना होगा। साथ ही वंचित वर्गों की भी पहचान करनी होगी। ये तभी किया जा सकता है जब सभी जातियों के बारे में सटीक जानकारी और आंकड़े उपलब्ध हों। ये सिर्फ़ एक जातिगत जनगणना (caste census) से ही हासिल हो पाएगा।