लोकतंत्र में असहमति और विरोध का अधिकार तथा UAPA कानून-UPSC

लोकतंत्र में असहमति और विरोध का अधिकार तथा UAPA कानून-UPSC

इस लेख में आप पढ़ेंगे: लोकतंत्र में असहमति और विरोध का अधिकार तथा UAPA कानून – UPSC

असहमति और विरोध के अधिकार को लेकर मौजूदा बहस कोई नई नहीं है बल्कि यह बहस उसी दौरान प्रारम्भ हो चुकी थी जब 1967 में असामाजिक तत्वों की दलील के आधार पर UAPA कानून लाया गया था।

गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (Unlawful Activities (Prevention) Act-UAPA) के अंतर्गत प्रावधान किया गया था कि किसी भी आतंकी संगठनो से जुड़ाव रखने वाली संस्थाओ पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। इसके बाद इस कानून में 2004, 2008, 2012 और 2019 में बदलाव किय गये है। इसके कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रावधान हैं :

  • 2019 के संशोधन के तहत सरकार किसी संगठन या संस्थाओं को ही नहीं बल्कि किसी व्यक्ति विशेष को भी आतंकी घोषित कर सकती है। पहले के कानून के तहत आतंकी संगठनों से जुड़ाव रखने वाली संस्थाओं पर तो प्रतिबंध लगाए जा सकते थे, मगर उनके संचालक या सदस्य बच निकलते थे। कुछ समय बाद वे नए नाम से नया संगठन या नई संस्था बना लेते थे।
  • इस कानून की धारा 43डी (2) के तहत न्यायिक हिरासत 90 दिन तक की हो सकती है जबकि अन्य कानून के तहत हिरासत केवल 60 दिन के लिए ही होती है। UAPA कानून के सेक्शन 43डी (5) के तहत अगर प्रथम दृष्टया (Prima Facie) किसी पर केस बनता है तो अदालत भी उसे जमानत नहीं दे सकती है।
  • इसमें सात साल की सजा से लेकर आजीवन कारावास तक का प्रावधान है। साथ ही आरोपी की संपत्ति जब्त भी की जा सकती है।

किसी भी आतंकी घटना को रोकने के लिए सख्त कानून हो इसे लेकर किसी को कोई ऐतराज़ नहीं हो सकता, परन्तु कानून के दुरूपयोग को लेकर हमेशा से ही सवाल उठते रहे है। एक समय आतंकवाद को रोकने के लिए टाडा और पोटा जैसे कानून भी लाये गए थे। परन्तु उन्हें खामियों के कारण वापस लेना पड़ा था।

नागरिकता संशोधन कानून, दिल्ली में होने वाले दंगे और कृषि कानून के विरोध मे निकाली गयी ट्रेक्टर रैली के दौरान गिरफ्तार किये गए लोगो को इस कानून के तहत जिस प्रकार से जेलों में डाला गया, उससे सरकार कि आलोचना होना भी स्वाभाविक था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने नताशा नरवाल, दिव्यांगना कलिता और आसिफ इक़बाल तनहा की ज़मानत अर्ज़ी पर सुनवाई करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है कि “जनतंत्र में असहमति और विरोध प्रकट करना मौलिक अधिकार है और यदि नागरिक किसी मुद्दे पर अपनी राय प्रकट करने के लिए इसका सहारा लेते है, तो इससे देश को कोई खतरा नहीं है”। अक्सर देखने में आया है की किसी राजनीतिक या सामाजिक मुद्दे पर विरोध जताने वाले व्यक्ति को पुलिस गिरफ्तार कर लेती है और उस पर कभी आतंकवाद के नाम पर, तो कभी देशद्रोह के नाम पर सख्त कानूनी धाराएं लगा दी जाती है। जिसके चलते आरोपी को जमानत तक मिलना मुश्किल हो जाता है। न्यायालय की राय में गैर कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून में उपयोग किए गए निश्चित शब्दों और वाक्यांशों को लागु करने के दौरान सावधानी बरतनी होगी ।

आखिर क्या इस तरह के अपरिपक्व कदमो से लोकतंत्र को बचाया जा सकता है? 

संविधान के अनुछेद 19 1(b) के तहत विरोध प्रदर्शन करना एक मौलिक अधिकार है। भले ही सरकार ने सोच समझ कर संशोधित नागरिकता कानून बनाया हो या फिर सरकार की नजर में कृषि कानून भी किसानो के हित में सही फैसला हो, परन्तु यह जरुरी नहीं कि देश के सभी नागरिक बिना कोई सवाल किए सहमति प्रकट करे। किसी भी देश में जनतंत्र और जनतांत्रिक शासन पद्धत्ति तभी कायम रह सकते है, जब तक वहां असहमति और विरोध जताने को अधिकार के तौर पर जगह मिलती रहे।

एक फ़ेसबुक पोस्ट लिखने से लेकर पर्यावरण या कृषि से जुड़े प्रस्तावित क़ानूनों का विरोध करने तक की वजह से लोगों पर यूएपीए के तहत केस दर्ज किए गए हैं। ऐसी स्थिति में पूरा मामला सरकार बनाम एक अकेले शख़्स का हो जाता है। जिस पर केस दर्ज हुआ हो वो एक सामान्य या ग़रीब परिवार से ताल्लुक़ रखने वाला व्यक्ति भी हो सकता है। वहीं, दूसरी तरफ़ सरकार होती है, जिसके पास असीमित संसाधन हैं। ऐसे में कोई अकेला शख़्स सरकार से कैसे लड़ पाएगा? यूएपीए के प्रावधान ऐसे हैं कि ये सरकार और सरकारी एजेंसियों को तो बहुत ताक़त देते हैं लेकिन अभियुक्त को बेहद कमज़ोर और बेबस बना देते हैं।

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