राजद्रोह कानून और उसकी प्रासंगिकता – UPSC

राजद्रोह कानून और उसकी प्रासंगिकता – UPSC

पिछले कुछ वर्षो में शायद ही कोई ऐसा दिन गुज़रा हो जिसमे राजद्रोह कानून समाचार पत्रों की सुर्खिया न रहा हो। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय से लेकर विधि आयोग तक इस कानून की प्रासंगिकता को लेकर प्रश्न-चिन्ह लगा चुके है, फिर भी सरकारें इस कानून को समाप्त करना तो दूर, इस पर बहस करने के लिए भी तैयार नहीं है। इससे साफ़ स्पष्ट हो जाता है की चाहे हम भारत के आदर्श लोकतंत्र को लेकर कितने ही कसीदे क्यों न पड़े, सरकारें अभिव्यक्ति की आज़ादी को, या अपनी आलोचना को सुनने के लिए कतई तैयार नहीं है। इसका अनुमान नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों से लगाया जा सकता है। साल 2015 में 30, 2016 में 35, 2017 में 51, 2018 में 70 और 2019 में 93 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के अनुसार, जब कोई व्यक्ति बोले गए या लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा घृणा या अवमानना या उत्तेजित करने का प्रयास करता है या भारत में क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति असंतोष को भड़काने का प्रयास करता है तो वह राजद्रोह का आरोपी है। राजद्रोह एक ग़ैर-जमानती अपराध है और इसमें सज़ा तीन साल से लेकर आजीवन कारावास और जुर्माना दोनों हो सकते है।

केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 124ए के बारे में स्पष्ट किया था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति, या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी, या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों तक सीमित होना चाहिए। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने अपने फ़ैसले में आईपीसी के तहत राजद्रोह क़ानून की वैधता को बरकरार रखा था और इसके दायरे को भी परिभाषित किया था।

पिछले कुछ महीनों में समय-समय पर मीडिया और पत्रकारों के ऊपर राजद्रोह के मुक़दमे दर्ज किये गए हैं जैसे कि आंध्र प्रदेश में दो तेलुगु न्यूज़ चैनलों- टीवी 5 और एबीएन, पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ हिमाचल प्रदेश में दर्ज मामला, नोएडा पुलिस द्वारा कांग्रेस सांसद शशि थरूर सहित छह पत्रकारों पर राजद्रोह का मामला, केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन और मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम के ख़िलाफ़ इसी प्रकार के मुक़दमे दर्ज किये गए।

देखा जाये अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का यह कानून स्पष्ट रूप से उलंघन करता है, इस कानून के आधार पर सरकारें लोगो को डराने-धमकाने का काम करती रही है। अगर आपराधिक कानून कि कोई धारा अस्पष्ट है तो लोगो को उस धारा के अधीन नहीं किया जा सकता जो उसे आजीवन जेल में डाल सकती हो। हाल ही में जितने भी पत्रकारों के खिलाफ देशद्रोह के मामले दर्ज किये है उनमे से किसी भी पत्रकार ने कोई हिंसक कार्य नहीं किया फिर उन्हें गिरफ्तार करने का औचित्य समझ से परे है।

राजद्रोह के क़ानून में सरकार के प्रति उत्तेजना या असंतोष को उत्तेजित करने की बात की गई है। आखिर असंतोष का क्या अर्थ है? क्या किसी को यह कहने का अधिकार नहीं है कि उसे सरकार से नफ़रत है? क्या कोई यह नहीं कह सकता कि उसे प्रधानमंत्री से नफ़रत है? क्या कोई यह नहीं कह सकता कि अमुक राजनेता भारत के इतिहास में सबसे बुरे हैं? यह सब भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। इस प्रकार के मामले बड़े जोश के साथ दर्ज किए जाते हैं लेकिन जांच एजेंसियों के पास अक्सर कोई सबूत नहीं होते और इसी कारण इसमें दोषसिद्धि कि दर अत्यंत कम रहती है।। यह क़ानून मूल रूप से लोगों में भय पैदा करता है और असंतोष को दबाने में सफल होता है। दरअसल यह कानून एक औपनिवेशिक विरासत है जिसे लागू करके औपनिवेशिक शक्तियों ने अपनी प्रजा को दबाने की कोशिश की थी। महात्मा गांधी भी इस का़ानून की सजा पाने वालों में से एक थे।

राजद्रोह के कानून पर लॉ कमीशन ने 2018 में स्पष्ट किया था कि लोकतंत्र में एक ही गीत की किताब से गाना देशभक्ति का पैमाना नहीं है और लोगों को अपने तरीके से अपने देश के प्रति अपना स्नेह दिखाने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए और ऐसा करने के लिए सरकार की नीति में ख़ामियों की ओर इशारा करते हुए कोई रचनात्मक आलोचना या बहस की जा सकती है। कमीशन के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के हर ग़ैर-ज़िम्मेदाराना प्रयोग को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है।

इस कानून के जनक यूनाइटेड किंगडम ने दस साल पहले ही इसे समाप्त कर दिया था। फिर भारत में इसे बनाये रखने का क्या औचित्य है? राजद्रोह का दायरा क्या होना चाहिए इन सब बातो को लेकर सरकारों को खुले दिमाग से सोचने कि आवश्यकता है किसी भी भय के माहौल में अभिव्यक्ति कि आज़ादी बेमानी हो जाती है। जब न्यायपालिका और विधि आयोग बार-बार इस कानून को लेकर संदेह प्रकट कर चुके है तो फिर इसे एक हथियार के रूप में बनाये रखने का औचित्य समँझ से परे है। आज देश में लोकतंत्र और उसकी परम्पराये इतनी आगे बढ़ चुकी है कि जन-प्रतिनिधियों से कठोर सवाल तो पूछे ही जायेंगे जो जरुरी भी है। जाति धर्म और क्षेत्रीय हितो के आधार पर एक बहुआयामी समाज में किसी न किसी वर्ग के द्वारा असंतोष प्रकट करना स्वाभाविक सी बात है। जन प्रतिनिधि सरकारों का यह दायित्व है कि उस असंतोष को दूर करे न कि एक भय का वातावरण निर्मित करे जिसमे सवाल-जवाब कि कोई गुंजाईश न हो।