इस्लामिक देश क्या नई गोलबंदी की दिशा में आगे बढ़ रहे है ?

इस्लामिक देश क्या नई गोलबंदी की दिशा में आगे बढ़ रहे है ?

इस लेख में आप पढ़ेंगे: इस्लामिक देश क्या नई गोलबंदी की दिशा में आगे बढ़ रहे है ?

पिछले कुछ सालों से दखने में आया है कि पश्चिम एशिया के इस्लामिक देश आपसी मतभेद भुलाने की दिशा में अग्रसर है। साल 2021 में सऊदी अरब, यूएई, बहरीन और मिस्र ने क़तर के ख़िलाफ़ नाकेबंदी ख़त्म कर दिया था। सऊदी अरब और ईरान के बीच भी इराक़ में कई चरणों की बातचीत हो चुकी है। यमन को लेकर भी सऊदी अरब का रुख़ बदल रहा है। तुर्की और यूएई भी आपसी मतभेद भुला चुके हैं और दोनों देशों के बीच उच्चस्तरीय दौरा भी हुआ। सऊदी अरब से भी तुर्की ने आपसी मतभेद को किनारे रख दिया और राष्ट्रपति अर्दोआन ने अप्रैल में सऊदी का दौरा किया। हाल ही में सऊदी अरब ने घोषणा की है कि तुर्की के केंद्रीय बैंक में पाँच अरब डॉलर जमा करेगा। ऐसा तब हो रहा है, जब तुर्की के संबंध पश्चिम से ठीक नहीं है, सऊदी अरब का रिश्ता भी अमेरिका से तनाव भरा है और यूएई भी पश्चिम की हर बात नहीं मान रहा है। ईरान और अमेरिका की दुश्मनी तो जग ज़ाहिर है।

पश्चिम एशिया में अमेरिका को लेकर अविश्वास की खाई गहरी होती जा रही है। अब खाड़ी के देशों को लग रहा है कि इस इलाक़े में अपनी डिप्लोमैसी ख़ुद ही चलानी होगी। सऊदी अरब ख़ुद ईरान से बात कर रहा है और यूएई ख़ुद तुर्की से बात क़र रहा है। जिस तरह से अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान के हवाले कर अपना बोरिया-बिस्तर समेटने की हड़बड़ी दिखाई उससे एक संदेश यह भी गया कि अमेरिका हितो से आगे नहीं सोचता है। ऐसे में अमेरिका से संबंध को लेकर अविश्वास का माहौल बनना भी लाजमी था।

एक वजह और भी है: पश्चिम एशिया मल्टिपोलर है, साउथ एशिया की तरह बाइपोलर नहीं है। वहाँ क़तर अमीर है तो सऊदी अरब और यूएई भी अमीर हैं। तीनों देश अपनी अमीरी के दम पर ही अपने इलाक़े में प्रभाव बढ़ाते रहते हैं। इस्लामिक दुनिया की दुश्मनी ख़त्म हो रही है कहना जल्दबाज़ी होगा। सऊदी अरब कट्टर इस्लाम से उदार इस्लाम की ओर बढ़ रहा है और तुर्की सेक्युलर के साथ आधुनिक इस्लाम से कट्टर राजनीतिक इस्लाम की ओर बढ़ रहा है। दोनों के पॉलिटिकल इस्लाम में बहुत फ़ासला है। तुर्की से पश्चिम के संबंध ख़राब होने की कई वजहें और घटनाक्रम हैं, जैसे कि अर्दोआन ने तुर्की को राजनयिक और रणनीतिक स्वायत्तता दिलाई और यह पश्चिम को रास नहीं आया।

2003 के पहले तुर्की में सेना का दबदबा रहता था। अतातुर्क भी फ़ौज से ही आए थे। तुर्की की अर्थव्यवस्था में भी फ़ौज का ही ज़्यादा दखल था। तख्तापलट भी तुर्की में होता रहता था। अर्दोआन ने यह सब ख़त्म किया और तुर्की की राजनीतिक व्यवस्था को पूरी तरह से बदलकर रख दिया, जो अर्दोआन की बड़ी उपलब्धि है। तुर्की पश्चिम से रिश्ते ख़राब होने के बाद से खाड़ी के देशों से संबंध दुरुस्त करने में पिछले कुछ सालों से लगा है। पिछले साल यूएई और सऊदी से तुर्की के रिश्ते में गर्मजोशी आई थी। तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने पिछले साल फ़रवरी में यूएई का और अप्रैल में सऊदी अरब का दौरा किया था। इसके बाद पिछले साल जून में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान तुर्की गए थे। एक समय ख़शोज्जी हत्याकांड से उपजे विवाद के बाद सऊदी अरब ओर तुर्की के मध्य संबंध सबसे खराब थे। पिछले साल डॉलर की तुलना में तुर्की की मुद्रा लीरा में 30 फ़ीसदी की गिरावट आई थी। 2021 में डॉलर की तुलना में लीरा 44 फ़ीसदी कमज़ोर हुई थी। पिछले पाँच सालों में तुर्की में विदेशी मुद्रा भंडार काफ़ी कमज़ोर हुआ है। अभी तुर्की का विदेशी मुद्रा भंडार 20 अरब डॉलर से भी नीचे आ गया है। तुर्की को भूकंप से 34 अरब डॉलर का नुक़सान हुआ है। ऐसे में सऊदी अरब ने तुर्की के केंद्रीय बैंक में पाँच अरब डॉलर जमा कर बहुत मुश्किल वक़्त में मदद की है।

तुर्की का जो दृष्टिकोण है, वह स्ट्रैटिजिक ऑटोनमी है। वह किसी के साथ स्थायी गठबंधन में नहीं जाना चाहता है। तुर्की ने अमेरिका से पेट्रीअट मिसाइल मांगी, उसने नहीं दी तो अर्दोआन ने रूस से एस-400 ले लिया। कुल मिलाकर इस्लामिक देश अतीत की दुश्मनी को भुलाकर एक नई दिशा की ओर आगे बढ़ते दिखाई दे रहे है।