भारत में समान नागरिक संहिता लागू करना  कितना पेचीदा मसला है? – Uniform Civil Code (UPSC)

भारत में समान नागरिक संहिता लागू करना कितना पेचीदा मसला है? – Uniform Civil Code (UPSC)

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सविधान के अनुच्छेद 44 में प्रावधान दिया गया है की राज्य एक समान नागरिक संहिता लागु करे हालांकि नीति निदेशक तत्व का कोई भी प्रावधान बाध्य कारी नहीं है ऐसे यह मसला हमेशा से चर्चा में बना रहा है सर्वोच्च न्यायालय भी अपने कई महत्वपूर्ण निर्णयों में राज्यों को इस दिशा में आगे बढ़ने के निर्देश दे चूका है
दरसल भारत में शादी, तलाक़, उत्तराधिकार और गोद लेने के मामलों में विभिन्न समुदायों के अपने धर्म, आस्था और विश्वास के आधार पर अलग-अलग क़ानून हैं जो स्वाभाविक भी था क्योकि भारत एक बहुआयामी देश रहा है

समान नागरिक संहिता लागू करना कठिन क्यों?

  1. भारत जैसे बेहद विविध और विशाल देश में समान नागरिक क़ानून को एकीकृत करना बेहद मुश्किल है उदाहरण के तौर पर देखें तो हिंदू भले ही व्यक्तिगत क़ानूनों का पालन करते हैं लेकिन वो विभिन्न राज्यों में विभिन्न समुदायों की प्रथाओं और रीति-रिवाजों को भी मानते हैं दूसरी ओर मुस्लिम पर्सनल लॉ भी पूरी तरह सभी मुसलमानों के लिए समान नहीं हैं. उदाहरण के तौर पर कुछ बोहरा मुसलमान उत्तराधिकार के मामले में हिंदू क़ानूनों के सिद्धांतों का पालन करते हैं
  2. वहीं संपत्ति और उत्तराधिकार के मामलों में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग क़ानून हैं. पूर्वोत्तर भारत के ईसाई बहुल राज्यों जैसे कि नागालैंड और मिज़ोरम में अपने पर्सनल लॉ हैं और वहां पर अपनी प्रथाओं का पालन होता है न कि धर्म का .
  3. गोवा में समान नागरिक क़ानून है जो कि उसके सभी समुदायों पर लागू होता है लेकिन कैथोलिक ईसाइयों और दूसरे समुदायों के लिए अलग नियम हैं. जैसे कि केवल गोवा में ही हिंदू दो शादियां कर सकते हैं
  4. भारत में समान नागरिक संहिता केंद्रीय और राज्य सरकारों की आम रुचि का मुद्दा रहा है. साल 1970 से राज्य अपने ख़ुद के क़ानून बना रहे हैं उदाहरण के तौर पर  2005 में एक संशोधन किया गया जिसके बाद मौजूदा केंद्रीय हिंदू व्यक्तिगत कानून में बेटियों को पूर्वजों की संपत्ति में बेटों के बराबर हक़ दिया गया लेकिन कम से कम पांच राज्यों ने इस मुद्दे पर अपने क़ानूनों में पहले ही बदलाव कर दिया था
  5. अगर गोद लेने का मामला देखें तो हिंदू परंपरा के मुताबिक़ धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक दोनों उद्देश्यों के लिए किसी को गोद लिया जा सकता है क्योंकि संपत्ति का वारिस एक पुरुष हो सकता है और परिजनों का अंतिम संस्कार पुरुष ही कर सकता है दूसरी ओर इस्लामी क़ानून में गोद लेने को मान्यता नहीं दी जाती है लेकिन भारत में एक धर्मनिरपेक्ष ‘जुवेनाइल जस्टिस’ लॉ है जो नागरिकों को धर्म की परवाह किए बग़ैर नागरिकों को गोद लेने की अनुमति देता है अगर एक कॉमन लॉ हुआ तो गोद लेन के लिए नियम बनाते हुए क्या तटस्थ सिद्धांत होंगे?
  6. धर्मांतरण क़ानून और समान नागरिक क़ानून का सामंजस्य कैसे होगा समान नागरिक क़ानून स्वतंत्र रूप से विभिन्न धर्मां और समुदायों के बीच विवाह की अनुमति देता है जबकि धर्मांतरण क़ानून अंतर-धार्मिक विवाहों पर अंकुश लगाने का समर्थन करता है
  7. छोटे राज्यों में लोगों की प्रथाओं को महत्वपूर्ण रूप से अव्यवस्थित किए बिना समान नागरिक क़ानूनों को लाने की योजना कैसे बनाई जाएगी?

समान नागरिक संहिता जरूरी क्यों?

  1. जब तक भारत समान नागरिक संहिता नहीं अपना लेता है तब तक लैंगिक समानता नहीं हो सकती है.
  2. अनुच्छेद 14 में प्रावधान किया गया है राज्य क़ानूनी रूप से सबको समान संरक्षण प्रदान  करेगा समान नागरिक संहिता के आभाव में यह कैसे सम्भव हो सकता है?
  3. समान नागरिक संहिता लागु होने के बाद भारत में किसी धर्म, लिंग और लैंगिक झुकाव की परवाह किए बग़ैर सब पर इकलौता क़ानून लागू होगा.  
  4. एक देश एक विधान की धारणा को बल मिलेगा.

यह सही है कि कानून  की एकरूपता कि मांग लम्बे समय से की जाती रही है फिर भी कुछ अनसुलझे सवाल तो उठते ही है. आदिवासियों की संस्कृति और परंपराओं का क्या होगा ? यूसीसी की वजह से छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट और संथल परगना टेनेंसी एक्ट जैसे दो आदिवासी क़ानून प्रभावित होंगे. ये दोनों कानून आदिवसियों की ज़मीन को सुरक्षा देते हैं . खासी हिल्स ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल के  अनुसार यूसीसी से खासी समुदाय के रिवाज, परंपराओं, मान्यताओं, विरासत, शादी और धार्मिक मामलों से जुड़ी आज़ादी पर असर पड़ेगा खासी समुदाय मातृसत्तात्मक नियमों पर चलता है. इस समुदाय में परिवार की सबसे छोटी बेटी को संपत्ति का संरक्षक माना जाता है और बच्चों के नाम के साथ मां का उपनाम लगता है  इस समुदाय को संविधान की छठी अनुसूची में विशेष अधिकार मिले हुए हैं . 2018 में लॉ कमीशन ने कहा था कि एक समान नागरिक संहिता ‘न आवश्यक है और न ही वांछित है

एक समाधान यह भी हो सकता है कि पर्सनल लॉ में लैंगिक भेदभाव को मिटाने के लिए एक सामान्य कानून की मांग करने के बजाय उनमे ही सुधार क्यों न कर लिया जाय?

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