अरब देश फ़लस्तीन के समर्थन में खुलकर क्यों नहीं आ रहे हैं? – UPSC
Middle East Conflicts

अरब देश फ़लस्तीन के समर्थन में खुलकर क्यों नहीं आ रहे हैं? – UPSC

इस लेख में आप पढ़ेंगे: अरब देश फ़लस्तीन के समर्थन में खुलकर क्यों नहीं आ रहे हैं? – UPSC/ The Middle East Crisis

पिछले साल सात अक्टूबर को इसराइल पर हमास के हमले के बाद से सबकी नज़रें मध्य-पूर्व पर टिकी थीं और दो सवाल सबके ज़हन में थे –

  •  इसराइल की ओर से प्रतिक्रिया कितनी तीखी और लंबी होगी;
  • क्षेत्र के अरब देश की जनता और सरकारें इसका कैसे जवाब देंगी?

आज तक पहले सवाल का कोई साफ़ जवाब नहीं मिल सका है. इसराइली बमबारी से गाज़ा में अब तक करीब  42 हज़ार फ़लस्तीनी मारे जा चुके हैं. अब भी मौतों का सिलसिला बदस्तूर जारी है. दूसरे सवाल का जवाब साफ़ है. अगर कोई यह उम्मीद रखता है कि अरब देशो में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन होंगे, तो उन्हें मायूसी होगी. एक समय था जब फ़लस्तीन की समस्या ने कई दशकों तक अरब देशों को एकजुट बनाये रखने के लिए प्रेरित किया था. लेकिन ये सब अब बीते दिनों की बात हो चुकी है. मिस्र और जॉर्डन ने दशकों पहले इसराइल के साथ शांति समझौते पर दस्तख़त कर लिए थे. मोरक्को, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इसराइल के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित कर लिए है. सऊदी अरब भी सात अक्टूबर को हमास और इसराइल की जंग की शुरुआत से पहले इसराइल के साथ संबंध स्थापित करने के क़रीब पहुँच चुका था.

2010 में अरब स्प्रिंग के बाद से स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है. उन विद्रोहों की नाकामी ने इस क्षेत्र को अस्थिरता का शिकार बना दिया है. सीरिया और इराक़ जो दो राजनीतिक विचारधारा वाले शक्तिशाली देश थे और अमेरिका को चुनौती दे सकते थे, आज परिदृश्य से ग़ायब हो चुके हैं. लीबिया ग़ायब हो गया, मिस्र आर्थिक अस्थिरता में है, जबकि सूडान गृह युद्ध में फंसा हुआ है. इस स्थायी संकट की हालत में अरब समाज फ़लस्तीनियों के साथ हमदर्दी रखते हुए भी बेबस महसूस करते हैं. वह ख़ुद अत्याचारी तानाशाही शासन में जीवन गुज़ार रहे हैं. अरब स्प्रिंग के बाद से क्षेत्र के बहुत से देशो की सड़कें ऐसी गतिविधियों के लिए बंद कर दी गई हैं, जहाँ राजशाही सरकारों ने कभी फ़लस्तानियों की हिफ़ाज़त के लिए किए गए प्रदर्शनों में लोगों को अपनी मायूसी जताने की इजाज़त दी थी. अरब की सरकारों को अब डर है कि कहीं ये विरोध प्रदर्शन उनके ख़िलाफ़ ना हो जाए.
राष्ट्रीय हितों के अलावा एक और चीज़ जिसने अरब देशों को फ़लस्तीन की समस्या से दूर रहने पर मजबूर किया वह था- अपने-अपने देशों में इस्लामी अतिवाद का उभार. यासिर अराफ़ात के नेतृत्व में फ़लस्तीनी प्रतिरोध की पहली लहर को एक हद तक राष्ट्रवादी माना जा सकता है. लेकिन आज का प्रतिरोध अधिकतर धार्मिक बुनियादों पर है. जो लोग आज फ़लस्तीन की समस्या के लिए लड़ रहे हैं, वह बुनियादी तौर पर इस्लाम पसंद हैं, चाहे हमास हो या हिज़्बुल्लाह, जिनकी विचारधारा इस्लाम से आती है. हमास के इस्लामी संगठन इख़्वानुल मुस्लिमीन के साथ संबंध (जो क्षेत्र के कई सरकारों के साथ संघर्ष में शामिल है) को ऐसे समझा जा सकता है कि उनमें से बहुत सी सरकारें हमास को ख़तरे के तौर पर देखती हैं.

हमास और हिज़्बुल्लाह के ईरान के साथ संबंध भी अरब देशों में शक को जन्म देते हैं. उदाहरण के तौर पर खाड़ी के राज्यों के लिए ईरान इसराइल से बड़ा ख़तरा है. बहुत सी अरब सरकारे इसराइली और अमेरिकी नैरेटिव में फसी हुई है, और वे हमास और हिज़्बुल्लाह के आंदोलन को ईरान के हथियार के रूप में देखती है. यह वह नैरेटिव है, जिसे अरब दुनिया में अधिकतर सरकारी प्रेस ने बढ़ावा दिया है, एक ऐसा क्षेत्र जहां शायद ही कोई आज़ाद मीडिया हो. सऊदी मीडिया के लिए उदाहरण के तौर पर असल चिंता फ़लस्तीनियों की नहीं बल्कि यह है कि ईरान किस तरह क्षेत्र पर कंट्रोल हासिल कर रहा है. अब हमास को ईरान से समर्थन और आर्थिक मदद मिलती है, लेकिन एक समय उसके कई अरब देशों के साथ अच्छे संबंध थे. बाद में अरब देशों को इस आंदोलन की बढ़ती ताक़त से चिंता होने लगी थी.

ऐसा लगता है फ़लस्तीन की समस्या को भी समय बीतने के साथ भुला दिया गया है. क्षेत्र की अधिकतर नौजवान पीढ़ी फ़लस्तीनियों से हमदर्दी रखती है, लेकिन वह विवाद की वजह और इसकी जड़ को नहीं जानती, क्योंकि यह बात अब स्कूलों में नहीं पढ़ाई जाती है. आज समाज और पहचान भी वैश्वीकरण के साथ बदल चुकी है. खाड़ी के देशों में, उदाहरण के तौर पर सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान जैसे लीडरों की पूरी नई पीढ़ी मौजूद है, जिसने अधिकतर पश्चिम में पढ़ाई की है और फ़लस्तीन को एक समस्या के तौर पर नहीं देखती.