इस लेख में आप पढ़ेंगे: डायरेक्ट कैश ट्रांसफर की नीति से क्या भारत की चुनावी राजनीति में महिलाओं की जागरूकता बढ़ी है? – UPSC / Direct cash transfers and political participation of women
हाल के वर्षो में राजनीतिक दलों ने महिलाओ के लिए डायरेक्ट कैश ट्रांसफर नीति के तहत अनेक योजनाएँ घोषित की है और उन्हें इसका राजनीतिक लाभ भी मिला है। मध्य प्रदेश ,महाराष्ट्र ,ओडिशा, कर्नाटक,और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में ये योजनाए गेम चेंजर साबित हुई हैं। सवाल यह उठता है क्या वाकई इस तरह की योजनाओ ने महिलाओं को राजनीतिक रूप से जागरूक बनाया है?
चुनावों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी:
देश में हुए पहले चुनाव में महिलाओं की भागीदारी 7.8 करोड़ यानी 45 फ़ीसदी थी, जो 2024 में बढ़कर 65.78 फ़ीसदी हो गई है। जबकि पुरुष मतदाताओं की भागीदारी 65.55 फ़ीसदी रही है। 2019 की तरह, 2024 में भी महिला वोटरों की संख्या पुरुषों से अधिक रही और लोकसभा चुनावों के इतिहास में ये केवल दूसरी बार हुआ है। 2024 में प्रति 1000 पुरुष मतदाताओं पर महिला मतदाताओं की संख्या 946 थी, जो कि साल 2019 लोकसभा चुनाव के 926 के आंकड़े से भी ज़्यादा है। इससे एक बात साफ है कि महिला वोटरों को अब कोई भी राजनीतिक दल नज़रअंदाज नहीं कर सकता है।
महिलाओं के लिए योजनाओं पर खर्च
‘स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया’ की एक रिपोर्ट की अनुसार अलग-अलग राज्यों में महिलाओं को ‘डायरेक्ट कैश ट्रांसफर’ के जरिये दी जाने वाले धनराशि कुल मिलाकर 2 लाख करोड़ रुपये का आंकड़ा पार कर गई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक़, महिलाओं को ‘लाडकी बहिण’ योजना के ज़रिये पैसा देने के लिए महाराष्ट्र ने सबसे ज़्यादा 46,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। दूसरे नंबर पर कर्नाटक है, जिसने ‘गृह-लक्ष्मी’ योजना के तहत महिलाओं को सालाना 28,608 करोड़ रुपये देने का प्रावधान किया है। इसी तरह, मध्य प्रदेश ने ‘लाड़ली बहन’ योजना के तहत 18,984 करोड़ रुपये, पश्चिम बंगाल ने ‘लक्ष्मीर भंडार’ योजना के तहत 14,400 करोड़ रुपये, गुजरात ने ‘नमो श्री योजना’ के तहत 12,000 करोड़ रुपये, और ओडिशा ने ‘सुभद्रा योजना’ के तहत 10,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। छत्तीसगढ़ सरकार ने विवाहित महिलाओं को सालाना 12,000 रुपये की सहायता देने के लिए ‘महतारी वंदना योजना’ शुरू की है। पश्चिम बंगाल की ‘लक्ष्मीर भंडार’ योजना के तहत समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की महिलाओं को एकमुश्त 1,000 रुपये का अनुदान देने का प्रावधान है। ओडिशा में ‘सुभद्रा’ योजना के तहत 21-60 वर्ष की आयु की सभी पात्र महिलाओं को 5 वर्षों में 50,000 रुपये देने का प्रावधान है। गुजरात में ‘नमो श्री’ योजना में एससी, एसटी और बीपीएल श्रेणियों से संबंधित गर्भवती महिलाओं को 12,000 रुपये की एकमुश्त वित्तीय सहायता देने का प्रावधान है।
क्या यह वोट ख़रीदने जैसा है?
इस तरह की योजनाओं की एक बड़ी आलोचना यह भी रही है कि डायरेक्ट कैश ट्रांसफर के ज़रिये वोट जुटाए जा रहे हैं। यहाँ मूलभूत ज़रूरत की बात नहीं है, यह बिजली, पानी, सड़क की बात नहीं हो रही है। सत्ता में बैठी पार्टियों को लगता है कि नकदी हाथ में देने से वे सरकारी मोर्चे पर नाकामियों से जनता का ध्यान भटकाने में सफल हो सकते हैं। फ़िलहाल तो उनका तीर सही निशाने पर है। मनरेगा एक ऐसी योजना थी, जिसमें ग्रामीण इलाकों में काम करने के लिए भुगतान मिलता था, लेकिन इन योजनाओं में ऐसा कुछ नहीं है। कल्याणकारी राज्य में गरीबों की सहायता पहली अनिवार्यता होती है, लेकिन मुफ़्तखोरी न कल्याणकारी राज्य के लिए उचित है न अर्थव्यवस्था के लिहाज से।
क्या ये योजनाएं आर्थिक रूप से टिकाऊ हैं?
अगर इन योजनाओं को एक बड़ी आबादी तक पहुचाना है तो वाकई यह एक महंगा कार्यक्रम है। इन योजनाओं के लिए पैसा जुटाने के लिए ज़्यादा संसाधन जुटाने होंगे। यदि ऐसा नहीं होता है तो कैश ट्रांसफ़र के लिए पैसा जुटाने के लिए अन्य योजनाओं के बजट में कटौती करनी होगी। बहुत से राज्य इन योजनाओं के लिए हज़ारों करोड़ रुपयों का प्रावधान कर रहे हैं। आखिर पैसा कहाँ से जुटाएंगे इसका उनके पास कोई ठोस उत्तर नहीं है।
सही मायनो में लेबर फ़ोर्स में महिलाओं की भागीदारी मात्र 37% है। सरकारें ऐसे अवसर और वातावरण बनाने का प्रयास करे जहाँ महिलाएँ बाहर आ सकें, काम कर सकें, पैसा कमा सकें और आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो सकें। आर्थिक रूप से स्वतंत्र न होना महिलाओं के लिए कई तरह की दिक्कतें पैदा करता है। बहुत सी महिलाएँ सभी घरेलू काम करती हैं, जिनका आर्थिक मूल्य है, लेकिन समाज, परिवार, या अर्थव्यवस्था में उन्हें कोई महत्व नहीं दिया जाता। महिलाओं को ये कैश ट्रांसफ़र बाज़ार में अवसरों की कमी के लिए एक तरह का आर्थिक मुआवजा देने के रूप में देखा जा सकता है।