इस लेख में आप पड़ेगे : अफ़ग़ानिस्तान के बदलते राजनीतिक माहौल में भारत की उलझन – UPSC
अमेरिकी सैनिकों की वापसी
अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिको की वापसी लगभग तय हो चुकी है और यदि सबकुछ सही रहा तो सितम्बर 2021 तक सैनिको की पूर्ण वापसी हो जाएगी। यह भी सच है कि अफ़ग़ानिस्तान की शांति प्रक्रिया एक तनावपूर्ण माहौल से गुज़र रही है।तालिबान के हमले और तेज़ होते जा रहे है और ऐसा प्रतीत होता है की तालिबान 1996 के उस इतिहास को दोहराना चाहता है जिसमे उसने काबुल में अपना परचम लहरा दिया था। इन सब परिस्थितियों में अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत की नीति क्या होगी? इसको लेकर कुछ नहीं कहा जा सकता।
भारत की तालिबान के प्रति नीति
भारत, अफ़ग़ानिस्तान में किसी भी तरह के ‘इस्लामिक अमीरात‘ का शायद ही समर्थन करे। स्पष्ट है कि ख़ुद को ‘इस्लामिक अमीरात ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान‘ के रूप में पेश करने वाले तालिबान के लिए यह भारत का साफ़ संदेश है कि उसे भारत का समर्थन आसानी से नहीं मिलने वाला है। दोहा शांति वार्ता में भारत ने अपना रुख़ साफ़ तौर पर रखते हुए कहा था कि कोई भी शांति प्रक्रिया अपनाई जाए मगर उसके केंद्र में अफ़ग़ानिस्तान के आम लोग ही होने चाहिए अर्थात शांति प्रक्रिया ‘अफ़ग़ान लेड, अफ़ग़ान ओंड ऐंड अफ़ग़ान कंट्रोल्ड‘ (Afghan led, Afghan owned and Afghan controlled) वाले फार्मूले पर ही होनी चाहिए। इस बीच अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के सुझाए गए शांति प्रस्ताव में बल दिया गया है कि संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में भारत, रूस, चीन, ईरान और पाकिस्तान के प्रतिनिधियों की भागेदारी वाली बहुपक्षीय वार्ता होनी चाहिए। इस प्रस्ताव का भारत ने समर्थन किया है। ज़ाहिर है कि भारत अब पहले की अपनी नीति से लचीलापन दिखा रहा है । दरअसल तालिबान के साथ भारत रिश्ते कायम करेगा या नहीं? या फिर किस स्तर पर उससे डील करेगा? ये सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि तालिबान लोकतांत्रिक तरीक़े अपनाता है या नहीं।
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का प्रभाव
पिछले 20 सालो में अफ़ग़ानिस्तान में काफी कुछ बदला है। आज वहां तालिबान का प्रभाव उन्हीं इलाकों में ज़्यादा है जहां पश्तून क़बायली लोगो की आबादी अधिक हैं। पूरे अफ़ग़ानिस्तान में पश्तून क़बायलियों की तादाद 42 प्रतिशत है। जहां इनकी आबादी कम है वहाँ दूसरे कबीलों का ज़्यादा प्रभाव है इसलिए हाल की हिंसक घटनाओं को लेकर यह नहीं कहा जा सकता है कि तालिबान पूरे अफ़ग़ानिस्तान और ख़ास तौर पर ग़ैर-पश्तून इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लेगा। पहले भी उत्तर अफ़ग़ानिस्तान का बड़ा हिस्सा अहमद शाह मसूद के नियंत्रण में था। काबुल के उत्तर में ताजिक और उज़्बेक कबीलों के बीच तालिबान का कोई ख़ास प्रभाव नहीं है। लेकिन पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान में पश्तून चरमपंथी गुट हक्क़ानी का काफ़ी प्रभाव है, इस गुट को पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था ISI का समर्थन प्राप्त रहा है। एक सवाल यह भी उठता है जब चीन, यूरोपीय संघ और रूस तालिबान को लेकर चर्चा कर सकते हैं तो भारत को भी पीछे नहीं रहना चाहिए।
भारत यह चाहेगा कि अगर अफ़ग़ानिस्तान में नई सरकार बनने की नौबत आती है तो उसमें तालिबान की हिस्सेदारी तो होनी चाहिए परन्तु यह नहीं होना चाहिए कि तालिबान सरकार पर ही क़ब्ज़ा कर ले। अगर तालिबान लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं अपनाता है तो वैसी सूरत में भारत को अपनी अफ़ग़ानिस्तान नीति पर पुनर्विचार करना पड़ेगा।
अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत की भूमिका
अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत की सक्रिय भूमिका रहने वाली है। नवंबर 2020 में ही भारत ने वहां करीब 150 नई परियोजनाओं की घोषणा की है। 2016 में भारत ने हेरात प्रान्त में 42 मेगावाट वाली बिजली और सिंचाई की परियोजना प्रारम्भ की थी। भारत के रक्षा मंत्रालय के अधीन सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) ने भी अफ़ग़ानिस्तान में कई महत्वपूर्ण सड़कों को बनाने का काम किया है और साथ ही साथ अफ़ग़ानिस्तान की फ़ौज, पुलिस और लोकसेवा से जुड़े अधिकारियों को भारत में प्रशिक्षण भी मिलता रहा है। इस पूरे क्षेत्र में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जिसने अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में सबसे ज़्यादा आर्थिक और दूसरी तरह की सहायता प्रदान की है और भागेदारी निभाई है।
अब देखना होगा कि नए राजनीतिक समीकरणों में तालिबान अफ़ग़ानिस्तान को किस रास्ते पर ले जाना चाहेगा । यदि तालिबान लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के साथ जुड़ता है तो यह इस क्षेत्र की स्थिरता के लिए एक सकारात्मक पहल होगी और भारत उसमे सहयोग देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगा।