चीन के मुद्दे को लेकर क्या शीत युद्ध कालीन अमेरिकी गठजोड़ बिखरने के कगार पर हैं ?

चीन के मुद्दे को लेकर क्या शीत युद्ध कालीन अमेरिकी गठजोड़ बिखरने के कगार पर हैं ?

दुसरे महायुद्ध के दौर में यह तो तय हो चुका था की अब यूरोप की पुरानी महाशक्तियों के स्थान पर अमेरिका और सोवियत संघ के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का निर्धारण किया जाएगा। ये दोनों नव-उदित महाशक्तियां विरोधी विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करती थी, ऐसे में इन दोनों के मध्य शीत युद्ध प्रारम्भ होना भी लाज़मी था। अतः इन्होने एक दुसरे को कमज़ोर करने के लिए समय-समय पर अनेक गठजोड़ खड़े किये थे। 1941 में ऐसा ही एक संगठन अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों के मध्य 5 आईज के नाम से स्थापित हुआ था। अमेरिका और ब्रिटेन के अलावा कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैण्ड इसके सदस्य थे। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य सदस्य देशों के मध्य ख़ुफ़िया सूचनाओं को साझा करना था।

देखा जाए सोवियत संघ के विघटन के पश्चात इस प्रकार के संगठनों का कोई औचित्य नहीं था, लेकिन अपनी एकल-धुर्वीय मानसिकता को बनाये रखने के उद्देश्य से शीत युद्ध कालीन संगठनों को न केवल जीवित रखा गया बल्कि उनके उद्देश्य भी बदल दिए गए। क्योंकि अब साम्यवाद के बचे- खुचे अवशेषों की घेराबंदी करना अमेरिका का प्राथमिक लक्ष्य था। गौरतलब है की अब चीन ही एक मात्रा ऐसा देश था जो किसी हद तक साम्यवाद के भ्रम को बनाये रख सकता था। ज़ाहिर सी बात है कि अब पश्चिमी देशों के निशाने पर चीन ही रहने वाला था। चीन ने पश्चिमी देशों का न केवल बखूबी मुकाबला किया बल्कि बाज़ारवाद के इस दौर में उसने अपने आप को एक महाशक्ति के रूप में खड़ा करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।

2020 में 5 आईज देशों ने ख़ुफ़िया सूचनाओं के साथ साथ मानवाधिकार जैसे मसलो की वकालत करना भी प्रारम्भ कर दिया था। यह सब चीन को ध्यान में रख कर किया जा रहा था। शिनजियांग प्रांत में वीगर मुसलमानों के उत्पीड़न, दक्षिणी चीन सागर में चीन की विस्तारवादी नीति, होंग कोंग में लोकतंत्र का दमन और ताइवान जैसे विषयों को लेकर चीन की आलोचना की जाने लगी। 5 आईज के चार देश अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने तो एक सुर में चीन को निशाने पर रखा है लेकिन न्यूज़ीलैण्ड ने इनका साथ नहीं दिया है। इसका मानना है कि जिस उद्देश्य के लिए 5 आईज का गठन किया गया था उससे हट कर इसे दूसरे रास्ते पर ले जाना उचित नहीं है। ध्यान रखना होगा कि चीन न्यूज़ीलैण्ड का सबसे बड़ा बाज़ार है। इसका करीब 30 % निर्यात चीन के साथ होता है जिनमे दुग्ध उत्पादों की हिस्सेदारी सबसे अधिक है। मानवाधिकारों की रक्षा को लेकर खुद पर गर्व करने वाला न्यू ज़ीलैण्ड यदि चीन की निंदा करने की मुहीम में शामिल नहीं हुआ है तो इसके पीछे उसके बाज़ारवादी हित हैं।

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने अपने विक्टोरिया राज्य में प्रस्तावित ‘one belt and one road ‘ योजना के निर्णय पर वीटो जारी कर दिया था जिससे ऑस्ट्रेलिया और चीन के मध्य एक प्रकार के व्यापर युद्ध की स्थिति बनी हुई है जबकि अमेरिका के साथ व्यापार-युद्ध पिछले तीन वर्षों से जारी है। इस पूरे घटनाक्रम से एक बात स्पष्ट है की अपने बाज़ारवादी हितों को लेकर अमेरिका के अनेक ऐसे सहयोगी देश हैं जो उसके पिछलग्गू नहीं बनना चाहते। शीत युद्ध कालीन और भी कई ऐसे संगठन हैं जैसे की NATO जिसके अनेक सदस्य अमेरिका से इत्तेफाक नहीं रखते।

बदलते अंतराष्ट्रीय परिवेश में दुनिया के देशों की विदेश नीति तेज़ी से बदल रही है। ऐसे में अतीत के संगठनों का वजूद कब तक बना रहेगा यह देखने वाली बात है। आज ज़रूरी नहीं है की पश्चिम के देश आँख बंद करके अमेरिकी नीतियों का समर्थन करते रहें।