इस लेख में आप पढ़ेंगे : सीरिया का संकट और वैश्विक महाशक्तियों की भूमिका – UPSC
2011 में ट्यूनेशिया से प्रारम्भ होने वाली अरब स्प्रिंग ने मिस्र, लीबिया और बहरीन की तानाशाही सत्ताओं को ध्वस्त कर एक सन्देश दिया था की मध्य पूर्व और खाड़ी क्षेत्र के अरब देशों की राजशाही सुरक्षित नहीं है। हालांकि इस क्रांति की बात पुरानी हो चुकी है, परन्तु सीरिया आज भी इसके अतीत से बहार नहीं निकल पाया है।
सीरिया में गृहयुद्ध का प्रारम्भ
2011 की अरब क्रांति पश्चिमी देशों के लिए भी एक अवसर लेकर आई थी कि सीरिया में बशर-अल-असद की तानाशाही सरकार को किसी न किसी प्रकार से गिराया जाए। यहीं से सीरिया में गृहयुद्ध का प्रारम्भ होता है। यह गृहयुद्ध जितना सीरिया की आंतरिक-सामाजिक संरचना में निहित था, उससे कहीं अधिक अंतर्राष्ट्रीय कारकों ने इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभाई थी। जहाँ एक ओर सऊदी अरब, अमेरिका और उसकी यूरोपियन मित्र मण्डली, बशर-अल-असद के विरुद्ध मोर्चाबंदी करने में लगी हुई थी, तो वहीँ रूस, ईरान और चीन असद की सत्ता के साथ कोई भी समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे।
सीरिया में बड़े देशों के हित
सऊदी अरब और ईरान के सीरिया में अपने-अपने धार्मिक हित रहे हैं। सऊदी अरब एक सुन्नी बहुल देश है, आखिर सीरिया में एक शिया शासक को वह कैसे स्वीकार कर सकता है, जिसकी 74% आबादी सुन्नी मत को मानने वाली हो? खाड़ी क्षेत्र में सऊदी अरब और ईरान धार्मिक दृष्टि से एक दुसरे के प्रतिद्वंदी रहे हैं। ज़ाहिर सी बात है की ईरान का बशर-अल-असद के पक्ष में खड़ा होना लाज़मी था। सीरिया की उत्तरी सीमा पर कुर्दो के मसले को लेकर तुर्की का भी सीरिया से टकराव है, क्योंकि कुर्द जिस पृथक कुर्दिस्तान की मांग करते रहे हैं उसमे कुछ हिस्सा तुर्की का भी आता है। अब यदि अमेरिका और रूस की बात करें, तो सऊदी अरब हमेशा से अमेरिका का एक मित्र देश है, और इसके पीछे अमेरिका के तेल हित जुड़े रहे हैं। सऊदी अरब के बलबूते वह खाड़ी क्षेत्र के देशों में दखल देता रहा है। दूसरी ओर, रूस अपने अतीत के गौरव को हासिल करने के लिए हाल के वर्षों में अधिक संवेदनशील रहा है। ऐसे में उसका अमेरिका के साथ टकराव होना भी स्वभाविक है। कहने का अभिप्राय है की सीरिया एक ऐसा अखाडा बना हुआ है जिसमे अन्य वैश्विक शक्तियां ज़ोर आज़माइश करती आई हैं।
सीरिया में इस्लामिक स्टेट
वहाबी विचारधारा से निकले इस्लामिक स्टेट ने भी सीरिया के गृह युद्ध का लाभ उठाते हुए इराक और सीरिया के क्षेत्रों को मिला कर एक नई सल्तनत खड़ी करने का सपना देखा था। कितने आश्चर्य की बात है, वहाबी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले सऊदी अरब को अमेरिका समर्थन देता आया है। वहीँ दूसरी ओर, वहाबी विचारधारा से निकले इस्लामिक स्टेट के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी जाती है। उधर रूस भी इस्लामिक स्टेट के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर सीरिया में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। अभिप्राय यह हुआ की इस्लामिक स्टेट के नाम पर अमेरिका, कुर्द और सीरियन डेमोक्रेटिक फोर्सेज के साथ मिल कर बसर अल असद के विरुद्ध युद्धरत था, तो वहीँ रूस की सेना बशर-अल-असद के लिए लड़ रही थी। शीघ्र ही इस्लामिक स्टेट का मध्यपूर्व से पतन हो गया और आज वह अपने लिए नई ज़मीन की तलाश में अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र में सक्रीय है। दोनों ही महाशक्तियों ने सीरिया में IS के खात्मे पर अपने-अपने दावे प्रस्तुत किये हैं, लेकिन गृहयुद्ध की उस मानवीय त्रासदी के बारे में किसी ने नहीं सोचा जिसमे करीब साढ़े चार लाख लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी है और लाखों लोग प्रवासी जीवन की तलाश में इधर-उधर आज भी भटक रहे हैं।
आगे की राह
भले ही आज बशर-अल-असद ने चौथी बार सत्ता में जीत हासिल कर ली हो, लेकिन सीरिया के भविष्य को लेकर कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब न तो वैश्विक महाशक्तियां देने की स्थिति में हैं और न ही बशर-अल-असद। दरअसल मध्य पूर्व और खाड़ी क्षेत्र की राजनीति इस कदर उलझी हुई है की उसका समाधान किसी के पास नहीं है। इस क्षेत्र में सबके अपने-अपने हित हैं, जिन्हे पूरा करने के लिए ये किसी भी हद्द तक जा सकते हैं। कभी इराक के साथ संघर्ष तो कभी ईरान के साथ, कभी येरुसलम के मुद्दे को लेकर इजराइल और फिलिस्तीन के मध्य टकराव, ये सब ऐसी घटनाए हैं जिनमे खून खराबे का दौर अनवरत रूप से जारी है और कोई इसकी ज़िम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है।