आखिर ट्यूनीशिया क्यों छोड़ रहा है लोकतंत्र की राह? – UPSC
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आखिर ट्यूनीशिया क्यों छोड़ रहा है लोकतंत्र की राह? – UPSC

इस लेख में आप पढ़ेंगे : आखिर ट्यूनीशिया क्यों छोड़ रहा है लोकतंत्र की राह? – UPSC

लगभग एक दशक पहले ‘अरब स्प्रिंग‘ (अरब क्रांति) की शुरुआत ट्यूनीशिया से ही हुई थी. तब इस ‘क्रांति’ का असर क़रीब क़रीब पूरे अरब जगत में दिखाई  दिया था और एक के बाद एक देश ‘तानाशाही ख़त्म करने’ की मांग बुलंद करने लगे थे. लेकिन तेज़ी से उभरी उम्मीदें अचानक दरकने भी लगीं थी . क्रांति या तो दबा दी गई या फिर कुछ देशो में  संघर्ष छिड़ गया. इस बीच, ट्यूनीशिया का किस्सा ‘कामयाबी की कहानी’ के तौर पर सुनाया जा रहा था. इस देश ने लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने का भरोसा बनाए रखा लेकिन अब ये उम्मीदें टूटती दिख रही हैं. ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति कैस सईद संसद भंग करने के साथ ही प्रधानमंत्री को बर्खास्त कर चुके हैं. राष्ट्रपति सईद को संविधान का जो मसौदा सौंपा गया है, उसमें उन्हें कई ‘नई और बेहिसाब शक्तियां’ हासिल हो गई हैं. 24 जुलाई को हुए जनमत संग्रह में ट्यूनीशिया के लोगों ने इस पर मुहर भी लगा दी है सवाल उठता है क्या ये देश फिर से तानाशाही की तरफ़ बढ़ रहा है?

दरसल  कैस सईद साल 2019 के राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार थे. सईद ने ट्यूनीशिया के लोगों से वादा किया था कि वे भ्रष्टाचार से लड़ेंगे. व युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हो गए. चुनाव में उन्हें ज़ोरदार जीत मिली. दो साल बाद उन्होंने देश के प्रधानमंत्री को अचानक बर्खास्त कर दिया और संसद भी निलंबित कर दी. अब देश की सत्ता पूरी तरह उनके हाथ में आ गई. अब नया संविधान संसदीय प्रणाली की तरफ से मुंह फेर रहा है ताकि यहां पूरी तरह राष्ट्रपति प्रणाली लागू हो जाए. राजनीतिक तौर पर ये उन सियासी पार्टियों को ख़ारिज करने जैसा है जिन्होंने बीते दस साल के दौरान राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सा लिया है.

ऐसा लगता है कि लोकतंत्र से आर्थिक तौर पर जो हासिल हुआ, उससे लोग संतुष्ट नहीं थे. ट्यूनीशिया ऐसा देश है जो एक स्लोगन में फंसकर रह गया. अरब स्प्रिंग का जन्म यहीं से हुआ था. ये पूरे अरब जगत के लिए रोल मॉडल था. 2011 की क्रांति की वजह आर्थिक और राजनीतिक दोनों थीं. उसके बाद ट्यूनीशिया को लोकतंत्र के फ़ायदे नहीं मिले. ट्यूनीशिया के लोगों ने खुद को ठगा सा महसूस किया. यही कारण है कि अपने राष्ट्रपति के सत्ता पर कब्ज़ा करने की कोशिश का उन्होंने ज़्यादा विरोध नहीं किया. ट्यूनीशिया के लोगों के मौजूदा राष्ट्रपति के फ़ैसले का विरोध न करने की एक और वजह है. वहां के लोग पीढ़ियों से जिस सिस्टम के तहत जिए हैं, उन्हें उसके साथ अब भी एक जुड़ाव महसूस होता है. देश में लोकतंत्र आने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि ज़्यादा नौकरियां मिलेंगी, ज़्यादा अवसर हाथ आएंगे. वो भ्रष्टाचार ख़त्म होने की आस लगाए थे लेकिन ऐसा  कुछ भी नहीं हुआ. लोग आर्थिक सुधार न होने से निराश हैं. ट्यूनीशिया में लोकतंत्र से लगाई गईं उम्मीदें टूटने का एक उदाहरण यहां की ‘ऑलिव ऑयल इंडस्ट्री’ की दुर्दशा है. ट्यूनीशिया ऑलिव ऑयल उत्पादन के लिहाज से दुनिया के आला देशों में है लेकिन यहां मूलभूत ढांचे पर इतना कम पैसा खर्च किया गया है कि फसल मौसम की मेहरबानी के भरोसे रहती है.

ट्यूनीशिया एक तरह से ‘प्रयोगशाला’ बनकर रह गया. कई लोगों को लगता है कि लोकतंत्र के साथ प्रयोग के नतीजे उम्मीद के मुताबिक नहीं रहे इस साल के आखिर में चुनाव होने हैं. ट्यूनीशिया के लोगों के पास तब ये बताने का मौका होगा कि देश के भविष्य को वो किस तरफ ले जाना चाहते हैं. हो सकता है फिर एक दिन ऐसा आए जब अरब जगत में लोकतंत्र की बयार पिछली क्रांति से भी ज़्यादा दमदार असर पैदा करे.