भारत में टू चाइल्ड पॉलिसी कितनी व्यवहारिक होगी ?- UPSC

भारत में टू चाइल्ड पॉलिसी कितनी व्यवहारिक होगी ?- UPSC

इस लेख में आप पढ़ेंगे : भारत में टू चाइल्ड पॉलिसी कितनी व्यवहारिक होगी?- UPSC

निसंदेह 2047 तक भारत दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। उस समय देश की जनसँख्या करीब 1 अरब 61 करोड़ होगी। देश की बढ़ती आबादी हमेशा से ही बहस का मुद्दा रही है और इसी को लेकर समय-समय पर टू चाइल्ड पॉलिसी लागू करने की वकालत की जाती रही है।

वर्ष 2019 में टू चाइल्ड पॉलिसी पर ‘पॉपुलेशन रेगुलेशन बिल 2019‘ नाम से एक प्राइवेट मेंबर बिल प्रस्तुत किया गया था। हाल ही में असम और उत्तर प्रदेश राज्यों के द्वारा भी इस प्रकार का कानून बनाए जाने की बात की जा रही है, जिसमे सरकारी योजनाओं का लाभ केवल उन्ही परिवारों को मिलेगा जिन्होंने टू चाइल्ड पॉलिसी का पालन किया है। निसंदेह उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जनसंख्या एक बड़ी समस्या है। जनसंख्या कम होगी, तो संसाधन लंबे समय तक चल पाएँगे और सरकार लोगों को बेहतर सुविधाएँ दे पाएगी। फिर चाहे वो शिक्षा हो या फिर राशन या फिर स्वास्थ्य सुविधाएँ। ऐसा नहीं है कि टू चाइल्ड पॉलिसी पहली बार ही अमल में आने वाली है। कुछ राज्य जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, तेलंगाना में अलग-अलग स्तर पर ये लागू है।

सवाल यह भी उठता है कि इस तरह की पॉलिसी की भारत को फ़िलहाल क्या आवश्यकता है, जबकि हर दशक में जनसंख्या बढ़ने की दर कम हो रही है और प्रजनन दर में भी कमी आ रही है। सभी धर्म के लोगों के बीच ऐसा हो रहा है। इस पॉलिसी की व्यवहारिकता को लेकर कुछ समस्याए हैं –

  • ऐसा करने से परिवार बच्चों के ‘सेक्स चयन‘ करने की तरफ़ दोबारा बढ़ने लगेंगे। अगर दो बच्चे ही पैदा करने होंगे तो, सब बेटे की चाहत में बेटियों को पैदा ही नहीं होने देंगे। फिर बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ जैसे अभियान का क्या होगा?
  • इससे फिर लिंग अनुपात भी गड़बड़ा जाएगा और दूसरी दिक़्क़त उम्र दराज़ जनसंख्या की वृद्धि हो जाएगी।
  • भारत को चीन से क्या नहीं करना चाहिए, इसके लिए सबक लेने की ज़रूरत है। चीन में न तो वन चाइल्ड पॉलिसी चली और न ही टू चाइल्ड पॉलिसी। अब वो थ्री चाइल्ड पॉलिसी पर पहुँच चुके हैं।
  • पाँच राज्यों में पंचायत चुनाव में टू चाइल्ड पॉलिसी के परिणामों पर एक स्टडी में पाया गया कि इसकी वजह से लोग ख़ुद को योग्य दिखाने के लिए अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ने लगे थे। ऐसी पॉलिसी के साथ इस तरह का डर हमेशा बना रहता है।
  • यदि राज्य सरकारें इस पॉलिसी के माध्यम से समाज के एक बड़े हिस्से को योजनाओं के लाभ से वंचित करेंगे तो इससे नुक़सान कम होने के बजाए ज़्यादा ही होगा, क्योंकि योजनाओं का लाभ नहीं मिलने से ग़रीबी बढ़ेगी, ग़रीबी का असर शिक्षा पर पड़ेगा और उस वजह से सुविधाएँ भी उन तक कम पहुँचें

देश में टू चाइल्ड पॉलिसी के बजाय दुसरे उपायों पर विचार करना चाहिए, जैसे कि –

  • हमें बांग्लादेश से सीखने की ज़रूरत है, जो मुस्लिम देश होते हुए भी जनसंख्या के मामले में भारत से बेहतर कर रहा है। वहाँ परिवार नियोजन के तरीक़े भी इस्तेमाल किए गए, लड़कियों की पढ़ाई पर भी ध्यान दिया गया और कामकाज में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ी है।
  • अगर बाहर के देशों को छोड़ भी दें, तो भारत में केरल जैसे राज्य हैं, जिन्होंने बिना इस तरह की टू चाइल्ड पॉलिसी को अपनाए, अपना प्रतिस्थापन अनुपात 2.1 तक ले आए। इन प्रदेशों ने भी लड़कियों की पढ़ाई लिखाई, महिला सशक्तिकरण और दूसरी योजनाओं पर ज़्यादा ध्यान दिया।
  • इस प्रकार कि पॉलिसी के बजाय जागरूकता पर अधिक ध्यान देने कि आवश्यकता है। केंद्र सरकार इस पॉलिसी को लागु करने में पहले ही असमर्थता प्रकट कर चुकी है, क्योंकि भारत में फ़ैमिली वेलफे़यर प्रोग्राम स्वैच्छिक है और इसे ज़बरन लागू नहीं कराया जा सकता।

असम में प्रतिस्थापन अनुपात फ़िलहाल सही है, इसलिए उन्हें तो टू-चाइल्ड पॉलिसी लाने की ज़रूरत ही नहीं है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में भी अभी प्रजनना दर राष्ट्रीय औसत से थोड़ा ही ज़्यादा है। आखिर क्या ये राज्य राजनीतिक गुणा-भाग के आधार पर इस प्रकार कि पॉलिसी को प्राथमिकता दे रहे हैं? भारत एक लोकतान्त्रिक देश है जिसमे लोगों कि सहमति-असहमति काफी मायने रखती है। हम चीन कि भांति कोई नीति थोप नहीं सकते। ऐसे में कानून के बजाय दुसरे विकल्पों पर विचार किया जाए, तो बेहतर होगा।