राज्य विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के महत्व की समीक्षा – UPSC

राज्य विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के महत्व की समीक्षा – UPSC

इस लेख में आप पढ़ेंगे: राज्यपाल और राज्य विधायी प्रक्रिया पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के महत्व की समीक्षा – UPSC / Supreme Court’s judgement on Governor’s role in the state legislative process

राज्य विधायी प्रक्रिया में कार्यपालिका के दखल का कोई मामला पहली बार सामने आया हो ऐसा तो नहीं है। राज्यपाल की भूमिका को लेकर बहस काफी पुरानी है। नया विवाद दरअसल केरल, पंजाब और तमिलनाडु, ख़ासकर विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपालो की मनमानी से उपजा है। उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु विधानसभा ने साल 2020 और 2023 के बीच 12 विधेयक पारित किए थे। लेकिन राज्यपाल ने इन विधेयकों को लंबित रखा और उन पर कोई कार्रवाई नहीं की। इनमे से राज्यपाल ने 10 विधेयकों को बिना किसी सुझाव के वापस कर दिया था। राज्य सरकार ने इन 10 विधेयकों को फिर से पारित किया और उन्हें राज्यपाल के पास दोबारा भेजा। लेकिन उन्होंने इस बार इन सभी विधेयकों को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित कर दिया था।

अक्तूबर 2023 में राज्य सरकार ने इसके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिस पर न्यायालय ने हाल ही में अपना महत्वपूर्ण निर्णय दिया है –

  • राज्यपाल का 10 विधेयकों को दूसरी बार पारित होने के बाद भी राष्ट्रपति को भेजना असंवैधानिक था। अत :राज्यपाल की अनुमति के बिना भी उन्हें क़ानून माना जाएगा। इस तरह का फ़ैसला पहली बार हुआ है।
  • राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास राज्य विधेयकों को लेकर कोई ‘वीटो‘ शक्ति नहीं है।
  • विधेयक प्राप्त होने पर, राज्यपाल अनुच्छेद 200 के तहत तीन विकल्पों में से केवल एक को ही चुन सकते हैं: अनुमति देना, अनुमति रोकना या राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित करना। ये विकल्प परस्पर अनन्य हैं। यदि राज्यपाल ने विधेयक को विधानसभा के पास वापस भेजा है और विधानसभा इसे फिर से बिना किसी नए बदलाव के उसी रूप में पारित कर देती है, तो राज्यपाल सामान्य रूप से विधेयक को राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते।
  • राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा विधेयक की मंज़ूरी रोकने को अदालतों में चुनौती दी जा सकती है।
  • यदि राज्य कैबिनेट या मंत्रिमंडल की सलाह पर राज्यपाल मंज़ूरी रोकते हैं या विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर कार्रवाई करनी होगी।
  • यदि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह के विपरीत सहमति रोकता है, तो उसे 3 महीने में विधेयक राज्य विधानमंडल को वापस करना होगा।
  • अनुच्छेद 201 के तहत यदि राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित रखते है तो राष्ट्रपति को 3 माह के भीतर उस पर अपना निर्णय लेना होगा। यदि इस समय सीमा के भीतर राष्ट्रपति आरक्षित विधेयक पर कोई निर्णय नहीं देता है तो उसे राज्य सरकार को विलम्ब के लिए ठोस कारण बताने होंगे।
  • यदि विधायिका विधेयक को दोबारा पारित करती है और फिर से प्रस्तुत करती है, तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर उस पर सहमति देनी होगी।
  • यदि राज्यपाल किसी ऐसे विधेयक को आरक्षित करता है, जिसकी सवैधानिकता को लेकर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है तो उसके लिए राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय से सलाह ले सकता है।
  • यदि राष्ट्रपति इस समय सीमा के भीतर निर्णय नहीं लेता है तो राज्य सरकार न्यायालय में परमादेश रिट के लिए अपील कर सकता है ।

ज्ञात है कि सरकारिया आयोग (वर्ष 1988) और पुंछी आयोग (वर्ष 2010) के द्वारा आरक्षित विधेयकों पर समय सीमा के भीतर निर्णय लिये जाने की सिफारिश की थी। गृह मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में जारी कार्यालय ज्ञापनों में भी राष्ट्रपति के पास आरक्षित राज्य विधेयकों पर निर्णय लेने हेतु तीन माह की समयसीमा निर्धारित की गई थी।

कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के निम्न परिणाम होंगे –

  • शायद सबसे बड़ा प्रभाव संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति के संभावित विकल्पों के लिए स्पष्ट समय सीमा की स्थापना है – यह राज्य की विधायी प्रक्रिया में स्पष्टता लाता है।
  • राज्यों को अनुचित विलंब पर आक्षेप करने का प्राधिकार प्रदान कर संघीय शासन का सुदृढ़ीकरण होगा।
  • विधायी प्रक्रिया में कार्यपालिका की शक्तियों के दुरुपयोग पर अंकुश लग सकेगा।
  • राज्यपालो की भूमिका को जिस प्रकार न्यायपालिका द्वारा संदेह के घेरे में खड़ा किया जा रहा है उसे देखते हुए राजनितिक दलों को भी सोचना होगा कि इस पद की गरिमा को बहाल करने के लिए क्या करना है? सरकारिया आयोग की सिफारिशो को लागु करने में आखिर हर्ज क्या है ?

नोट

  1. एस.आर.बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि राष्ट्रपति शासन के लिये राज्यपाल की सिफारिश न्यायिक समीक्षा के अधीन है और इसे मनमाने ढंग से लागू नहीं किया जा सकता।
  2. शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974): सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना चाहिये, सिवाय उन परिस्थितियों के जहाँ संविधान राज्यपाल को अपने विवेक से कार्य करने की अपेक्षा करता है।
  3. रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ (2006): सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार विधानसभा के विघटन को असंवैधानिक घोषित किया तथा इस बात पर बल दिया कि राज्यपाल की शक्तियाँ निरपेक्ष नहीं हैं तथा उनका प्रयोग संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप ही किया जाना चाहिये।