इस लेख में आप पढ़ेंगे : क्या महामारी के आने से विभिन्न देशो के मध्य संरक्षणवाद की धारणा पहले से भी और अधिक गहरी हो जाएगी ? – UPSC
सोवियत संघ के विघटन के साथ ही 90 के दशक में आर्थिक सुधारों का दौर पूरी दुनिया में प्रारम्भ हुआ जिसका मुख्य उद्देश्य विश्व को एक साझे बाजार की धारणा से जोड़ना था। भूमंडलीकरण के इस दौर में विकासशील और अल्पविकसित देशों को पूंजीवाद के खांचे में समाहित करना सबसे बड़ी उपलब्धि मानी गई थी। इसमें डंकल मसौदे की भी सबसे अग्रणी भूमिका रही है, जिसे 1995 में स्वीकार किया गया था।
आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में एक अच्छी और सकारात्मक बात यह हुई कि कुछ विकासशील देश, चाहे वे ASEAN समूह से सम्बंधित रहे हों या फिर BRICS से, पश्चिमी देशो से प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में आ खड़े हुए। ये पश्चिमी देश लम्बे समय से पूंजीवाद की लम्बरदारी कर रहे थे। इक्कीसवी शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में बाज़ारवादी हितों को लेकर टकराव का जो दौर प्रारंह हुआ, उसे सामान्य भाषा में व्यापर युद्ध के रूप में सम्बोधित किया गया।
यह युद्ध 2018 में उस समय प्रारम्भ हुआ जब अमेरिका ने स्टील के आयात पर 25% और एल्युमीनियम के आयात पर 10% टैरिफ शुल्क आरोपित कर दिए थे। ज्ञात रहे की अमेरिका स्टील व एल्युमीनियम का अधिकांश आयात कनाडा और यूरोपियन संघ के देशों से करता रहा है। इसके बाद जुलाई 2018 में 60 अरब डॉलर के चीनी उत्पादों पर टैरिफ शुल्क लगाने की घोषणा की गई थी। 2020 तक आते आते अमेरिका ने चीन के करीब 335 अरब डॉलर के उत्पाद पर टैरिफ शुल्क लगा दिया था। बदले में चीन ने भी 110 अरब डॉलर के अमेरिकी उत्पादों पर टैरिफ लगाते हुए बदले की कार्यवाही की गई। दरअसल यह व्यापार युद्ध अपने-अपने आर्थिक हितों के संरक्षण को लेकर ही प्रारम्भ हुआ था जो पूंजीवादी सिद्धांतों के एक दम उलट था।
अब कोविड-19 महामारी ने संरक्षणवाद की इस धारणा को और भी गहरा कर दिया है। महामारी के कारण सभी देशों में मांग प्रभावित हुई है। ऐसे में विनिर्माण और उत्पाद प्रक्रिया प्रभावित होना लाज़मी था जिससे न तो नए रोज़गार उत्पन्न हुए और न ही लोगों की क्रय शक्ति बढ़ने की कोई आशा थी। भारत जैसे देशों के द्वारा यदि आत्मनिर्भर भारत योजना पर बल दिया जा रहा है, तो कहीं न कहीं वह भी संरक्षणवाद की दिशा में उठाया गया कदम है। भारत व यूरोपियन संघ के देशों के मध्य 2013 से ही मुक्त व्यापार समझौते पर वार्ता बंद पड़ी है और इस पर इतनी आसानी से सहमति बन पायेगी गुंजाईश कम ही है। आज महामारी के दौर में प्रत्येक देश के सम्मुख यह एक बड़ी चुनौती है की आखिर वह अपनी अर्थव्यवस्था को कैसे उभार पाता है। अतः बाज़ारवादी मारा-मारी में जिस संरक्षणवाद को कुछ बड़े देशों ने अपनी नासमझी और दक्षिणपंथी विचारधारा के तहत प्रारम्भ किया था, आज वह संरक्षणवाद दुनिया के सभी देशों के लिए मजबूरी भी और आवश्यकता भी है। महामारी से उभरने के बाद क्या एक बार फिर खुले बाजार का दौर अपने व्यावहारिक स्वरुप में आ पाएगा, यह देखने वाली बात होगी।