इस लेख में आप पढ़ेंगे: Ukraine Crisis/ यूक्रेन का घटनाक्रम क्या महायुद्ध की ओर मुड़ सकता है ? – UPSC
यूक्रेन की सीमा पर लाखो रुसी सैनिकों की तैनाती महीनो से बनी हुई थी, जिसके बाद से ही यूक्रेन पर हमले की अटकलें लगाई जा रही थी। हालांकि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन पर हमले की किसी भी योजना से महीनों तक इनकार करते रहे। वो बार-बार कहते रहे कि यूक्रेन से सटी सीमा के पास रूसी सैनिको की उपस्थिति मात्र युद्धाभ्यास हैं।
रूस आख़िर यूक्रेन से नाराज़ क्यों हुआ?
रूस लंबे समय से यूरोपीय संगठनों, ख़ासकर NATO, के साथ यूक्रेन के जुड़ाव का विरोध करता रहा है। यूक्रेन की सीमा, पश्चिम में यूरोपीय देशों और पूर्व में रूस के साथ लगती है। हालांकि पूर्व सोवियत संघ का सदस्य और आबादी का क़रीब छठा हिस्सा रूसी मूल का होने के चलते यूक्रेन का रूस के साथ गहरा सामाजिक और सांस्कृतिक जुड़ाव रहा है। पश्चिमी देशो से यूक्रेन की निकटता के कारण 2014 में दोनों देशो के मध्य टकराव हुआ था और रूस ने दक्षिणी यूक्रेन के क्राइमिया प्रायद्वीप को अपने क़ब्ज़े में ले लिया था।
हाल के घटनाक्रमों के पीछ रूस का यूक्रेन पर आरोप है कि वह पश्चिमी देशों के हाथों की कठपुतली बना हुआ है। कभी सोवियत संघ का हिस्सा रहने के चलते यूक्रेन का रूस के समाज और संस्कृति से गहरा जुड़ाव रहा है। वहां रूसी भाषा बोलने वालों की संख्या भी अच्छी ख़ासी है। लेकिन 2014 के बाद से दोनों देशों के रिश्ते काफ़ी ख़राब हो गए। अलगाववादियों के प्रभाव वाले लुहान्स्क और दोनेत्स्क इलाक़ों को आज़ाद क्षेत्र की मान्यता देने का मतलब यह है कि रूस पहली बार क़ुबूल कर रहा है कि उसके सैनिक उन इलाक़ों में मौजूद हैं। इसका मतलब यह भी है कि रूस अब वहां अपने मिलिटरी बेस बना सकता है। मिन्स्क समझौते के अनुसार, यूक्रेन को उन इलाक़ों को विशेष दर्जा देना था, लेकिन रूस की कार्रवाई के चलते अब ऐसा शायद ही हो पाएगा। रूस काफ़ी वक़्त से यूक्रेन पर पूर्वी हिस्से में ‘जनसंहार’ का आरोप लगाकर युद्ध के लिए माहौल तैयार कर रहा था। उसने विद्रोही इलाक़ों में लगभग 7 लाख लोगों के लिए विशेष पासपोर्ट भी जारी किए थे। माना जाता है कि इसके पीछे रूस की मंशा, अपने नागरिकों की रक्षा के बहाने यूक्रेन पर कार्रवाई को सही ठहराना है।
रूस NATO से क्या चाहता है?
नाटो को लेकर रूस की दो मांगे हैं। पहला कि यूक्रेन नाटो का सदस्य न बने और दूसरा कि नाटो की सेनाएं 1997 के पहले की तरह की स्थिति में लौट जाएं। रूस की इन मांगों को मानने का मतलब होगा कि NATO को पोलैंड और बाल्टिक देशों एस्टोनिया, लात्विया और लिथुआनिया से अपनी सेनाएं वापस बुलानी होगी। साथ ही, पोलैंड और रोमानिया जैसे देशों में वो मिसाइलें भी तैनात नहीं रख पाएगा। रूस
का यह भी तर्क है कि यदि यूक्रेन नाटो का हिस्सा बनता है, तो वह क्राइमिया पर दोबारा क़ब्ज़े की कोशिश कर सकता है। रूस का मानना है कि पश्चिमी देशों ने 1990 में ये वादा किया था कि पूर्व की ओर नेटो एक इंच भी विस्तार नहीं करेगा, लेकिन इस वादे को तोड़ा गया है। नाटो गठबंधन की यूक्रेन में सैनिकों को भेजने की तो कोई योजना नहीं है फिर भी वह यूक्रेन को सलाह, हथियार और आर्थिक मदद देकर इस विवाद को लम्बा खींचना चाहेगा। रूस की कार्रवाई के बाद पश्चिमी देशो के पास अब उस पर केवल प्रतिबंध लगाने का ही विकल्प बचा है। जर्मनी ने रूस के नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन की मंज़ूरी को फ़िलहाल रोक दिया है। ब्रिटेन, रूस के 5 बड़े बैंकों और 3 अरबपतियों पर कार्रवाई कर रहा है। अमेरिका ने घोषणा की है कि वह पश्चिमी वित्तीय संस्थानों से रूस का संपर्क काट रहा है। वैसे तो आर्थिक रूप से रूस पर की गई कार्रवाई से उसके बैंकिग सिस्टम का कनेक्शन इंटरनेशनल स्विफ्ट पेमेंट से कट जाएगा, लेकिन अमेरिका और यूरोप की अर्थव्यवस्था पर भी इसका काफ़ी प्रभाव पड़ सकता है।
कुल मिलाकर अब पेच इस बात पर फसा हुआ है नेटो के संबंध में रूस कि बात कहाँ तक मानी जाती है। वैसे नाटो रूस की मांग को मानता हुआ तो अभी नहीं दिख रहा है। लगता है पश्चिमी देश इस युद्ध में सीधे तो नहीं कूदेंगे मगर रूस को कमजोर करने का कोई अवसर भी नहीं छोड़ेगे। अर्थात बिना नाटो के सदस्य देशों की प्रत्यक्ष कार्यवाही के, इस घटनाक्रम का युद्ध में परिवर्तित होना संभव नहीं है।